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________________ जैन धर्मः सार सन्देश धर्म के नाम पर इस प्रकार प्रपञ्च फैलानेवाले केवल दूसरों को ही नहीं, बल्कि अपने को भी धोखा देते हैं। अपना जीवन निष्फल बना लेते हैं। इसकी ओर ध्यान दिलाते हुए शुभचन्द्राचार्य कहते हैं: अहो विभ्रान्तचित्तानां पश्य पुंसां विचेष्टितम्। यत्प्रपञ्चैर्यतित्वेऽपि नीयते जन्म नि:फलम्॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि देखो, भ्रमरूप चित्तवाले पुरुषों की चेष्टा साधुपने में भी पाखंड प्रपंच करके जन्म को निष्फल कर देती है। कुछ लोग समझते हैं कि पाप से बचना और पुण्य कमाना ही धर्म है। इसलिए वे पाप से बचने और पुण्य कमाने पर जोर देते हैं। यह ठीक है कि पुण्य करना अच्छा या भला है और पाप करना बुरा है। पर अपने भले-बुरे कर्मों द्वारा हम केवल शुभ-अशुभ कर्मों को इकट्ठा करते हैं और तदनुसार अपने शुभ-अशुभ कर्मों के भुगतान के लिए संसार की अच्छी-बुरी योनियों में भटकते रहते हैं। पुण्य कर्मों से कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। जब तक हम मोह, क्षोभ आदि विकारों को दूर कर आत्मशुद्धि या वीतरागता की अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक पाप और पुण्य दोनों लोहे और सोने की बेड़ियों के समान बन्धनकारी बने रहते हैं। भाव पाहुड़ मूल में स्पष्ट कहा गया है: जो आत्मा को तो प्राप्त करने की इच्छा नहीं करते और सभी प्रकार से पुण्यकर्मों को करते हैं, वे भी मोक्ष को प्राप्त न करके संसार में ही भ्रमण करते हैं।84 नयन्त्रक बृहद् गाथा में भी कहा गया है: मोह के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के शुभ व अशुभ कर्मों से संसार भ्रमण होता है।85 पुण्य और पाप को सोने और लोहे की बेड़ियों के समान बताते हुए पण्डित पन्नालाल समयसार की प्रस्तावना में कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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