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________________ 67 जैन धर्म का स्वरूप जैन धर्म के अनुसार वेषधारी पाखण्डियों को आदर-सत्कार देना मूर्खता है, जैसा कि जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है: जो परिग्रह (धन-संचय की प्रवृत्ति) आरम्भ और हिंसा से युक्त हैं, संसाररूपी समुद्र भँवर में पड़े हुए डुबकियाँ ले रहे हैं, ऐसे पाखण्डी विविध वेषधारी गुरुओं का किसी सिद्धि आदि पाने की अभिलाषा से आदर-सत्कार करना पाखण्डिमूढ़ता जानना चाहिए।” सभी यह स्वीकार करते हैं कि सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति मोह या आसक्ति बन्धन का कारण है । इसे छोड़े बिना मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए प्राचीन काल से ही कुछ लोगों के बीच यह धारणा चली आ रही है कि मुक्ति की चाह रखनेवालों को घर-बार, धन-सम्पत्ति आदि सबकुछ को छोड़कर जंगलों या पहाड़ों में चले जाना चाहिए। कुछ साधक तो किसी से बोलना भी ठीक नहीं समझकर मौन धारण कर लेते हैं और कुछ पहननेवाले वस्त्रों का भी पूर्ण त्याग कर देना आवश्यक समझते हैं । इन विचारों के बहुत से समर्थक और अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सबकुछ छोड़कर जंगलों या सुनसान स्थानों में चले जाने पर भी मन तो साथ ही जाता है और मन के अन्दर से सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति चिरकाल से जमी हुई आसक्तियों या मोह को अचानक निकाला नहीं जा सकता । पर संसार के प्रति मोह या आसक्ति को अपने मन से निकालना निश्चय ही केवल बाहरी त्याग करने से ज़्यादा आवश्यक है। यदि कोई साधक घर - बार को बिना छोड़े अपनी दृढ़ साधना द्वारा सांसारिक मोह और आसक्तियों से ऊपर उठ जाये तो वह घर में रहता हुआ भी पूर्ण उदासीन, वीतरागी या वैरागी बन सकता है । इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं: मोह को नष्ट करना संसार के बन्धन से मुक्त होना है। सभी वेदनाओं का मूल कारण मोह ही है। जब तक यह प्राचीन रोग आत्मा के साथ रहेगा भीषण से भीषण दुःखों का सामना करना पड़ेगा ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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