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________________ 50 जैन धर्मः सार सन्देश स्वरूपलीनता की अवस्था में आ जाती है और धर्म के सभी लक्षण अपने-आप आत्मा के स्वाभाविक गुण बन जाते हैं। इसलिए अनेक जैन ग्रन्थों में समता, वीतरागता तथा राग-द्वेष और मोह-क्षोभ से रहित अवस्था को ही सच्चा धर्म माना गया है। उदाहरण के लिए, भाव पाहुड़ ग्रन्थ में कहा गया है: रागादि समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में ही रत हो जाना धर्म है। इसी बात की पुष्टि करते हुए भाव पाहुड़, मूल, परमात्म प्रकाश, मूल और तत्त्वानुशासन में भी कहा गया है: मोह और क्षोभ रहित अर्थात् रागद्वेष और योगों से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म कहते हैं। जैन धर्म के अनसार सभी मनुष्य सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना द्वारा अपनी आत्मा का अनुभव प्राप्त कर परमात्मा बन सकते हैं। इसलिए धर्म को किसी व्यक्ति, जाति या वर्ग की सम्पत्ति मानना भूल है। इसे स्पष्ट करते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन फिर कहते हैं: इस सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को ही सच्चा धर्म कहते हैं, जिसके प्रभाव से महान् पापिष्ठ तथा पतित आत्माएँ भी पावन और परमात्मा बन सकती हैं। कल्याण और आत्मोन्नति का इच्छुक प्रत्येक प्राणी, चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति और अवस्था में क्यों न हो, अपनी योग्यतानुसार उपरोक्त रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, रूप धर्म को धारण करने में पूर्ण स्वतन्त्र है। यह धर्म किसी व्यक्ति, जाति, समाज या वर्ग विशेष की सम्पत्ति न होकर प्राणी मात्र की . सम्पत्ति है और प्रत्येक व्यक्ति उससे अपना व दूसरों का कल्याण कर सकता है। जैन आचार्यों के इन कथनों पर ध्यान देने से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म का मर्म अपनी आत्मा के उस मूल स्वरूप को पहचानने में है
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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