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________________ आत्मा से परमात्मा 335 आदिपुराण में सर्वज्ञता या केवलज्ञान के आधार पर परमात्मा के अनेक उत्तम गुणों तथा परमात्मा से प्रकट होनेवाली दिव्यध्वनि की प्रशंसा करते हुए उनकी स्तुति इन शब्दों में की गयी है: हे भगवन्, इस देदीप्यमान केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होने पर यह स्पष्ट प्रकट हो गया है कि आप ही धाता अर्थात् मोक्षमार्ग की सृष्टि करनेवाले हैं और आप ही तीनों लोक के स्वामी हैं । इसके सिवाय आप जन्मजरारूपी रोगों का अन्त करनेवाले हैं, गुणों के खजाने हैं और लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं । इसलिए हे देव, आपको हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं । हे नाथ, इस संसार में आप ही मित्र हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही स्वामी हैं, आप ही स्रष्टा हैं और आप ही जगत् के पितामह हैं। आपका ध्यान करनेवाला जीव अवश्य ही मृत्युरहित सुख अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त होता है । आपकी यह दिव्यध्वनि, ज्ञानीजनों को शीघ्र ही तत्त्वों का ज्ञान करा देती है । हे भगवन्, आपकी वाणीरूपी यह पवित्र पुण्य जल हम लोगों के मन के समस्त मल को धो रहा है, वास्तव में यही तीर्थ है और यही आपके द्वारा कहा हुआ धर्मरूपी तीर्थ भव्यजनों को संसाररूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है । हे भगवन्, मुनि लोग आपको ही पुराण पुरुष अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं, आपको ही ऋषियों के ईश्वर और अक्षय ऋद्धि को धारण करनेवाले अच्युत अर्थात् अविनाशी कहते हैं तथा आपको ही अचिन्त्य योग को धारण करनेवाले, और समस्त जगत् के उपासना करने योग्य योगीश्वर अर्थात् मुनियों के अधिपति कहते हैं। हे भगवन्, आप तीनों लोकों के एक पितामह हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप परम निवृति अर्थात् मोक्ष अथवा सुख के कारण हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप गुरुओं के भी गुरु हैं तथा गुणों के समूह से भी गुरु अर्थात् श्रेष्ठ हैं इसलिए भी आपको नमस्कार हो, इसके सिवाय आपने समस्त तीनों लोकों को जान लिया है इसलिए भी आपको नमस्कार हो । हे जिनेन्द्र, आपकी स्तुति कर हम लोग आपका बार-बार स्मरण करते हैं, और हाथ जोड़कर आपको नमस्कार करते हैं। 33
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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