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________________ 298 जैन धर्म : सार सन्देश परमज्योति (केवलज्ञान) रूप हैं और अविनाशी हैं ऐसे अर्हन्तदेव ध्यान करने योग्य हैं। 74 उनकी दिव्य अलौकिक सभा में फैले दिव्य प्रकाश और दिव्यध्वनि का वर्णन आदिपुराण में इन शब्दों में किया गया है: देवों के दुन्दुभी मधुर शब्द करते हुए आकाश में बज रहे थे। जिनका शब्द अत्यन्त मधुर और गम्भीर था ऐसे पणव, तुणव, काहल, शंख और नगाड़े आदि बाजे समस्त दिशाओं के मध्य भागको शब्दायमान करते हुए तथा आकाश को आच्छादित करते हुए शब्द कर रहे थे । .. क्या यह मेघोंकी गर्जना है ? अथवा जिसमें उठती हुई लहरें शब्द कर रही हैं ऐसा समुद्र ही क्षोभ को प्राप्त हुआ है ? इस प्रकार तर्क-वितर्क कर चारों ओर फैलता हुआ भगवानके देवदुन्दुभियों का शब्द सदा जयवन्त रहे । ... • उस समय वह जिनेन्द्र भगवान् के शरीर की प्रभा मध्याह्न के सूर्य की प्रभा को तिरोहित करती हुई - अपने प्रकाश में उसका प्रकाश छिपाती हुई, करोड़ों देवों के तेज को दूर हटाती हुई, और लोक में भगवान् का बड़ा भारी ऐश्वर्य प्रकट करती हुई चारों ओर फैल रही थी । ... जिस प्रकार मेघों की गर्जना सुनकर चातक पक्षी परम आनन्द को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार उस समय भगवानकी दिव्य ध्वनि सुनकर भव्य जीवों के समूह परम आनन्द को प्राप्त हो रहे थे। सबकी रक्षा करनेवाले और अग्नि के समान देदीप्यमान भगवान् को प्राप्त कर भव्य (मोक्षार्थी) जीवरूपी रत्न दिव्य कान्ति को धारण करनेवाली परम विशुद्धि को प्राप्त हुए थे ।” शुभचन्द्राचार्य भी अपने ज्ञानार्णव ग्रन्थ में यही उपदेश देते हैं कि रूपस्थ ध्यान में अर्हत् (अरहंत ) भगवान् का ध्यान करना चाहिए। उनकी अद्भुत महिमा और अपार गुणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं: इस रूपस्थ ध्यान में अरहन्त भगवान् का ध्यान करना चाहिए । . आपका चरित अचिन्त्य है, आप सुन्दर चरित्रवाले गणधरादि ...
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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