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________________ 251 अनुप्रेक्षा (भावना) लेना ही आस्रव भावना है। यह भावना जीव को बन्धनकारी कर्मों से बचे रहने के लिए सजग करती है। 8. संवर भावना तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अनुसार कर्मों के आस्रव (बहाव) का निरोध करना (रोकना) ही संवर है-"आस्रव निरोधः संवरः।"26 हम जो भी शुभ या अशुभ कर्म करते हैं, वे पहले हमारे चित्त में शुभ या अशुभ भाव के रूप में उठते हैं। तब हम काय, वचन और मन द्वारा उन भावों को कार्यरूप देते हैं। इसके अनुसार संवर के दो भेद किये जाते हैं: (i) भावसंवर और (ii) द्रव्यसंवर। जीव के वे भाव जो कर्मों के आस्रव को रोकनेवाले होते हैं उन्हें भावसंवर कहते हैं और उन भावों के अनुसार नये कर्मों का आत्मा में प्रवेश रुक जाना द्रव्यसंवर कहलाता है। जैन धर्म में कर्मों के आस्रव को रोकने के लिए बहुत से उपाय बताये गये हैं, जैसे राग-द्वेष को दूर करने के लिए सत्पुरुषों या महात्माओं की जीवनचर्या का स्मरण करना, दूसरों को पीड़ा न पहुँचाने के उद्देश्य से सावधानी से चलना-फिरना, संयमपूर्वक रहना आदि। इस प्रकार नये बन्धनकारी कर्मों का अपने अन्दर प्रवेश न होने देने के लिए अन्दर और बाहर से पूर्ण सतर्क और सचेष्ट बने रहना ही संवर भावना का वास्तविक लक्ष्य है। इसे ज्ञानार्णव में इस प्रकार समझाया गया है: समस्त आस्रवों के निरोध को संवर कहा है। वह द्रव्यसंवर तथा भावसंवर के भेद से दो प्रकार का है। जिस प्रकार युद्ध के संकट में भले प्रकार से सजा हुआ वीरपुरुष बाणों से नहीं भिदता है, उसी प्रकार संसार की कारणरूप क्रियाओं से विरतिरूप संवरवाला संयमीमुनि भी असंयमरूप बाणों से नहीं भिदता है। जिस कारण से आस्रव हो, उसके प्रतिपक्षी (विरोधी) भावों से उसे रोकना चाहिए। क्रोधकषाय का तो क्षमा शत्रु है, तथा मानकषाय का मृदुभाव (कोमलभाव), मायाकषाय का ऋजुभाव (सरलभाव) और लोभकषाय
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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