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________________ 238 जैन धर्म : सार सन्देश इस संसार-सरोवर में यम- धीवर के हाथ से फैलाए हुए चमकीले जरा - जाल में फँसकर भी यह लोकरूप दीन-हीन मीनों का समूह अपने इन्द्रिय-सुख - जल में क्रीड़ा करता रहता है और निकट में ही प्राप्त होनेवाले घोर आपदाओं के चक्र को नहीं देखता, यह बड़े ही खेद का विषय है ! अर्थात् वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर भी जो इन्द्रिय-विषय-सुखों में मग्न रहते हैं उनकी दशा बड़ी ही खेदजनक है ! ऐसे लोग जाल में फँसकर क्रीड़ा करते हुए मीनों की तरह शीघ्र ही घोर आपदाओं को प्राप्त होते हैं । गत जीवों को काल के गाल गये सुनकर और बहुतों को अपने सामने काल के गाल में जाते (मरते ) हुए देखकर भी जो लोग अपने को स्थिर मान रहे हैं उसका कारण एकमात्र मोह है - और इसलिए ऐसे लोग मोही कहे जाते हैं । वृद्धावस्था प्राप्त होने — बुढ़ापा आ जाने पर भी जो लोग धर्म में चित्त नहीं लगाते वे पुत्र-पौत्रादिक बन्धनों से अपने आत्मा को और ज़्यादा - ज़्यादा बँधाते रहते हैं । ऐसे लोगों का बन्धन - मुक्त होना बड़ा ही कठिन कार्य हो जाता है । इस जगत् में मनोवांछित लक्ष्मी पायी, समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को भोगा - उस पर राज्य किया - और वे अति मनोहर - रमणीय विषय प्राप्त किये जो स्वर्ग में देवताओं को भी दुर्लभ हैं; परन्तु इन सबके अनन्तर मृत्यु (मौत) आवेगी । अतः ये सब विषय-भोग - जिनमें हे आत्मन्! तू रच-पच रहा है - विषमिश्रित भोजन के समान धिक्कार के योग्य हैं। अर्थात् जिस प्रकार विष मिला हुआ भोजन खाते समय स्वादिष्ट मालूम होने पर भी अन्त में प्राणों का हरण करनेवाला होने से त्याज्य है उसी प्रकार ये विषय - सुख भी सेवन करते समय अच्छे मालूम होते हुए भी अन्त में दुर्गति का कारण होने से त्यागने के योग्य हैं । अतः इनमें आसक्ति का त्याग करके मुक्ति के मार्ग पर लगना चाहिए जिससे फिर वियोगादि-जन्य कष्ट न उठाने पड़ें। इस संसार में विधि के वश से - पूर्वोपार्जित कर्म के अधीन हुआ - राजा भी क्षणभर में रंक हो जाता है और सर्वरोगों से रहित
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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