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________________ प्रस्तावना दुनिया का इतिहास बताता है और आये दिन की परिस्थितियों से भी पता चलता है कि धर्म के नाम पर जितना अत्याचार हुआ है और अभी हो रहा है, उतना शायद अन्य किसी चीज़ के चलते नहीं हुआ। इसे देखते हुए लोगों की धर्म से अरुचि होती जा रही है। फिर जैन धर्म या किसी भी अन्य धर्म के सम्बन्ध में कुछ लिखने या विचार करने का प्रयोजन ही क्या है? यहाँ शुरू में ही यह समझ लेना आवश्यक है कि धर्म के नाम पर होनेवाले अत्याचार का वास्तविक कारण धर्म नहीं है। यदि कोई साधु या गुरु का वेष बनाकर और बाहरी तौर पर उनकी नक़ल कर लोगों को ठगता फिरे तो इससे साधु या गुरु का पद तो बुरा नहीं हो जाता। धर्म किसी को बुराई की ओर नहीं ले जाता। पर जब मनुष्य अपनी मनुष्यता को भुलाकर पशु से भी नीच वृत्तिवाला बन जाता है तब वह धर्म जैसी पवित्र चीज़ को भी अधर्म का रूप देकर अपने और मानव-समाज के साथ घोर अत्याचार करता है। अन्धविश्वास, पूर्वाग्रह या पक्षपात के कारण मनुष्य झूठ को भी सत्य मान सकता है। झूठ अनेक हो सकते हैं, पर सत्य सदा एक ही होता है। भले ही समय, परिस्थिति या आवश्यकता के अनुसार हम इसके अनेक पहलुओं पर विचार करें या ज़ोर दें। इस एक सत्य पर आधारित धर्म भी एक ही हो सकता है, भले ही विभिन्न समयों और परिस्थितियों में इसके अनेक पहलुओं पर ज़ोर दिया गया हो। इस सम्बन्ध में जैन, बौद्ध, योगदर्शन तथा अनेक आधुनिक ध्यान और समाधि की विधियों के गहरे और तुलनात्मक अध्ययन और अनुभव के आधार पर रणजीत सिंह कूमट ने बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा है: धर्म एक है, सनातन है, सार्वजनीन (सबसे सम्बन्ध रखनेवाला) है, सबके लिए है और मंगलकारी है। भेद केवल सम्प्रदाय अथवा पंथ और पंथ के कर्मकाण्डों में है; सिद्धान्तों और सत्य वचनों में नहीं है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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