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________________ 114 जैन धर्म: सार सन्देश भी दुःखी बनाता है। इसलिए चोरी को हिंसा का अंग और अचौर्य को अहिंसा का अंग माना गया है। कुशील (व्यभिचार) द्वारा मनुष्य अपनी दुर्भावना का शिकार होकर अपनी आत्मा के पतन का कारण बनता है और दूसरों को भी इस चरित्रदोष का संगी बनाकर कलंकित करता है। इससे विवेक और सच्चरित्रता का नाश होता है, जिससे मनुष्य पशु के समान बन जाता है। इसलिए कुशील को भी हिंसा का ही अंग माना गया है। इस सम्बन्ध में नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं: यदि मनुष्य, मनुष्य ही बना रहना चाहता है और अपना जीवन शान्तिपूर्वक बिताने के साथ-साथ संसार में भी शान्ति क़ायम रखना चाहता है तो इस पाशविक वृत्ति का उसे त्याग करना ही चाहिये और यह याद रखना चाहिये कि आत्मा के गौरव और उन्नति की परवाह किये बिना इन्द्रियों और मन के दास (गुलाम) बनकर कम से कम अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को बदनियत और बुरी दृष्टि से देखना एवं स्वच्छन्दता और उच्छृङ्खलतापूर्वक प्रवृत्ति करना, चाहे वह कितनी ही होशियारी से क्यों न की जाये, पापशून्य कार्य नहीं कहला सकता और न इससे संस्कृति तथा सभ्यता का विकास व आत्मोन्नति ही हो सकती है। व्यभिचार में प्रवृत्ति कर स्वयं पतित होना आत्महिंसा और पर-स्त्री को पतित करना परहिंसा स्पष्ट है।" ब्रह्मचर्य की साधना के लिए संयमपूर्वक रहना आवश्यक है और संयम का अर्थ है मन और इन्द्रियों तथा विशेषरूप से काम-भावना को अपने वश में रखना। संयमी जीव ही एकाग्र होकर ध्यान की साधना कर सकता है। परिग्रह (अनावश्यक संचय) की प्रवृत्ति मनुष्य के लोभ और तृष्णा को उत्तेजित कर सांसारिक वस्तुओं के प्रति अनावश्यक मोह-ममता पैदा करती है। फिर सांसारिक धन-दौलत की दौड़ में लगे मनुष्य की आत्म-शान्ति और आत्म-सन्तोष का नाश हो जाता है। आत्म-शान्ति का नाश आत्महिंसा ही तो है। साथ ही बेईमानी, छल-कपट और विश्वासघात द्वारा दूसरों का धन हड़पना या उन्हें उनके अधिकार से वंचित करना स्पष्ट ही परहिंसा है। इसलिए परिग्रह को हिंसा का अंग और अपरिग्रह को अहिंसा का अंग माना जाता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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