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________________ साधना पथ है। इसी के लिए पैसा इकट्ठा करता है, पाप करता है, न करने योग्य कार्य भी करता है, परन्तु जिसे संसार का मूल कारण रूप यह भोग नहीं चाहिए उसका अन्य सब सहजता से छूट जाता है। लेकिन यह बनना बहुत कठिन है, क्योंकि अनादि काल के संस्कार स्पर्शेन्द्रिय के, एकेन्द्रिय से ही इसके साथ लगे हुए हैं। उस से छूटने के लिए सतत पुरुषार्थ की जरूरत है। अच्छे निमित्तों में रहकर उपयोग पूर्वक वर्ते तो काम हो जाएँ। आलस और प्रमाद, इस जीव के अनादि काल के शत्रु हैं। उनके वश में न हो पर खोज खोजकर इन्हें निकाल देना है, यह दृढ़ निश्चय करें। अब तो छूटना ही है। कुछ ग्रहण नहीं करना। छोड़ना, छोड़ना और छोड़ना ही है। देह भाव जीव को अनादि काल से दृढ़ हो गया है। अतः दूसरे की देह के प्रति भी दृष्टि जाती है। मैं देह नहीं, देहादि मेरे नहींऐसा दृढ अभ्यास करने की जरूरत है। 'मैं देह नहीं' ऐसा उपयोग हमेशा रखना। "मैं तो ज्ञानी ने जाना है, ऐसा आत्मा हूँ।" जीव चाहे, वह कर सकता है। पुरुषार्थ करे तो सब हो। सिर्फ विचार करें कि यह मन मेरे वश में कैसे हो? जीव पुरुषार्थ करें तो यह मन एकदम वश में हो जाता है। इसे जिधर मोडें उधर मुड़ जाता है। अतः सतत पुरुषार्थ की आवश्यकता है। प्रमाद नहीं करना चाहिए। (५३) बो.भा.-१ : पृ.-१३७ मोह का क्षय होने से इच्छा उत्पन्न नहीं होती। इन्द्रियों का ज्ञान तो अधूरा है, पर आत्मा में तो पूर्ण ज्ञान है। अभी आत्मा पर आवरण है। अतः इन्द्रियों से जानते हैं। संसार के कारण मीठे लगते हैं, मोक्ष के कारण अप्रिय लगते हैं, ऐसी उल्टी मान्यता, मिथ्यात्व है। जीव को मोह के कारण दुःख होता है। मोह दूर हो जाए तो सुख है। आत्मा निरावरण हो तो परिपूर्ण सुख ही है। दुःख दूर करने का उपाय सम्यग्दर्शन है। भगवान ने छः द्रव्य कहे हैं, उसकी हमें पहचान करना है। पदार्थ का जैसा स्वरूप है वैसा मानना, सम्यग्दर्शन है। उल्टा मानना और मेरी समज सच है ऐसा
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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