SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना पथ ज्ञानी ने जो सुख का मार्ग बताया है, उससे जीव उल्टा वर्तन करता है। स्वच्छंद में विचरता है। ज्ञानी को जो अच्छा लगे, वह करना चाहिए। अनन्त काल से जीव ने स्वच्छंद से ही सब कुछ किया है। स्वच्छंद को रोककर ज्ञानी की आज्ञानुसार चलने से कल्याण होता है। व्रत आदि क्रिया ज्ञानी की आज्ञा से करे तो कल्याण है। अपने आप करे तो लाभ नहीं। ज्ञानी की साक्षी से करें तो बहुत लाभ है। स्वच्छंद का पोषण संसार है। जीव अपनी बुद्धि आगे रखकर सब करता है, पर ज्ञानी की आज्ञा जाने, तभी लाभ है। जीव को भव भय नहीं लगा। विषय कषाय में फँसा है। जहाँ विषयादि की श्रद्धा हो, वहाँ मोक्ष की श्रद्धा नहीं होती। जब जीव को संसार जहर लगेगा, तभी छूटेगा। आत्मज्ञान करना हो तो पहले मन को साफ करो। इच्छाओं से आत्मा मलिन हुआ है। मुझे कुछ नहीं चाहिए, आत्मा कर्म से पकड़ा हुआ है, वह कैसे छुटे? इस तरह जब लगेगा, तब काम होगा। ज्ञानी पुरुष की आज्ञा पालन से ही मोक्ष है। सत्पुरुष के प्रति प्रेम हो तो भक्ति जागे। भक्ति सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। मन-वचन-काया से कर्म आते हैं। इससे विचारवान जीव हो, वह मन को ज्ञानी की आज्ञा में जोड़ता है। कल्पना, कर्म का कारण है। बुरे विचार आएँ तो झट सावधान होता है और अपनी आत्मा को उपालंभ देकर सद्विचार में जोड़ता है। अकार्य करते क्षोभ न रहे तो तीव्र कर्म बंध होगा। सब के संस्कार पड़ते है। पाप करके अभिमान करे तो रौद्रध्यान है। अपने दोष का जीव को पता होता है, पर उनके प्रति जो तिरस्कार हो तो दोष जाएँ। अतः सत्संग करो। उससे दोष का पता लगता है। . प्रत्येक वस्तु अपना स्वभाव बताती है। पारस से सोना बनता है, पर लोहे में जंक लगा हो, तो सोना नहीं बनता। उसी तरह सत्पुरुष का योग हो और कल्याण न हो, तो जानना कि जीव में जंक (काट) लगा है। योग्य जीव हो और सत्पुरुष का योग हो तो कल्याण होगा ही। जीव को अपनी होश नहीं, अन्यथा स्वयं को दुःख हो, ऐसा काम न करें। अपने दोप देखना है। मेरा ही दोष है, ऐसा लगे तो फिर दोष न करें।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy