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________________ १२ साधना पथ जीव की न हो, पर निश्चय से मैं सिद्ध समान ही हूँ। सिद्ध परमात्मा निरंतर आत्मानंद कैसा भुगतते हैं? यह अन्तर में गहरे जाकर सूक्ष्म विचार से देखा जाए तो अपना मूल स्वरूप जानकर उल्लास आता है। कर्म घटते हैं। मंत्र का स्मरण करते रहना। मन को भटकते मत रखना। मंत्र का स्मरण करते करते अभी जो समझ नहीं आता, वह आने लगेगा। (११) बो.भा.-१ : पृ.-२४ "दर्शनमोह व्यतीत थई, ऊपज्यो बोध जे; देह भिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो।" श्री.रा. अपूर्व अवसर देह में व्याधि-पीड़ा होती है तब बेचैनी आती है, घबराहट होती है, वह सब दर्शनमोह के कारण है। दर्शनमोह अर्थात् रूप, रस, गंध आदि पुद्गल का धर्म है और जानना, देखना, स्थिर होना यह जीव का धर्म है, उसमें भेद नहीं रखते हुए तदाकार होना। जैसे मिर्च पुद्गल है, उसमें जानने का गुण नहीं, पर जव हम इसे खाते हैं तब आत्मा के ज्ञाता गुण के कारण ही यह जानी जाती है। आहार लेते तीखा, मीठा, खारा, खट्टा आदि पुद्गल के गुण में जीव को रागद्वेष होता है, वह चारित्रमोह, दर्शनमोह के कारण होता है। मुर्दे को जलाए तो उसे कुछ नहीं होता पर अंदर चेतन हो तो पता लगता है कि गर्म है, जलता है। वैसे ही देह में पूर्व कर्म अनुसार साता-असाता उत्पन्न होती है, शरीर को उसका पता नहीं। चेतन के कारण सुख-दुःख का पता लगता है। यदि यों विचारें कि देह को जो होता है, उसमें चेतन को कुछ लेना-देना नहीं, तो यह वेदनीय कर्म आकर निर्जर जाता है; क्योंकि वेदनीय कर्म अघाती है, आत्मा को आवरण नहीं करता। परन्तु चेतन को शरीर के साथ अनंत काल से रहने से एकरूपता का अध्यास हो गया है। अतः मुझे दुःख होता है, मैं मर जाऊँगा, सुखी हूँ, दुःखी हूँ आदि तन्मय भाव यह दर्शनमोह है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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