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________________ २०९, साधना पथ सच्चा बना तब से असंग होने लगता है। सत्य आने पर सब छोड़ने लगता है। अंदर से जो हो गया कि मेरा नहीं, तो छूटे ही। मत-मतांतर काँटें हैं। उनका समाधान न हो तो वहाँ न रूके, पुरुषार्थ करना। आगे समझ आएगी कि 'ज्यां शंका त्यां गण संताप; ज्ञान तहाँ शंका नहीं स्थाप।' यह अभी मतमतांतर में भूल गया है। अपना किया सच्चा मानता है। प्रथम गुणस्थानक में ही ग्रन्थि होती है। पाँच इन्द्रियाँ और मन प्राप्त हो, और अच्छे भाव होने पर सद्गुरु का बोध सुने तो देशनालब्धि प्राप्त हो। तब ऐसा लगता है कि ज्ञानी कहते हैं वह सत्य है और मैं करता हूँ वह गलत है। इससे कर्म मन्द पड़ते हैं। यहाँ तक तो जीव बहुत बार आया है। ग्रन्थिभेद करने की तैयारी में हो, वहाँ से वापिस उसे पटक कर दर्शनमोह, संसार में ले जाता है। कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, ये सात प्रकृत्तियाँ जीव को परेशान करती हैं। क्रोध आने पर जीव को होता है कि भले नरक में जाऊँ तथापि क्रोध तो करूँगा ही। मान-माया-लोभ आने पर विचार करता है कि यह तो मेरा धर्म है। पहले गुणठाणे से जीव चौथे जाएँ और वहाँ से गिरे तो दूसरे या पहले में आता है। ग्रन्थिभेद बिना सम्यक्त्व नहीं होता। चौथे गुणस्थानक में क्षयोपशम, उपशम या क्षायिक समकित होता है। जीवने पुण्य बांधने के योग से यह मानवभव पाया है, सत्पुरुष का योग पाया है, परन्तु जब प्रकृतियाँ क्षय करनी हों, तब जीव ढीला पड़ जाता है। प्रश्नः- कर्म तो जड़ है तो आत्मा क्यों ढीला पड़ता है? उत्तरः- नकेल जड़ वस्तु होने पर भी बैल को वश करती है? बैल को तो एक नकेल (नाथ) है। जीव को तो १५८ नकेल हैं। जीव ने आज तक कर्म की एक भी प्रकृत्ति नहीं तोड़ी। ज्ञानी की आज्ञा का पालन करना। जो प्रकृत्ति हो, उसका विचार करना कि, मुझे क्रोध बहुत तंग करता है, माया तंग करती है, लोभ परेशान करता है। फिर निकाले, ऐसा करते करते समकित हो सकता है। 'लहे शुद्ध समकित ते, जेमाँ भेद न पक्ष।' समकित आएँ तो फिर अन्तर
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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