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________________ १७५ साधना पथ पालें तो वे व्यर्थ न जाएँ। आत्मज्ञान के लक्ष्य बिना करे तो मात्र पुण्य बंध हो। चौथे गुणठाणे आत्मज्ञान होता है, श्रावकत्व पाँचवें और मुनित्व छठे में आता है। व्रत-नियम न करें ऐसा नहीं पर आत्मज्ञान करके जितना करें उतना निर्जरा का कारण बनता है। पाप की अपेक्षा पुण्य अच्छा है, जैसे कोई धूप में से छाया में आए। जितना करना हो, लक्ष्य सहित करो। इसके बिना व्यवहार कुछ काम का नहीं। जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्व है तब तक कर्म का क्षय नहीं होता। पुण्य बंध होता है। "निश्चय वाणी सांभळी, साधन तजवां नोय; निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय।” १३१ आ.सि. आत्मज्ञानी के आश्रित बनें तो आत्मज्ञान हो सके। आत्मज्ञानी का योग न हो तो आत्मज्ञान होना दुष्कर है। ऐसे योग की भावना करना। आत्मार्थी जीव ऐसी भावना करें कि मुझे सद्गुरु का योग कब मिले? "प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार; ___ एवो लक्ष थया विना, उगे न आत्म विचार।" ११ आ.सि. चाहे कितने भी शास्त्र पढ़ें, व्रत पाले; पर भूल रह जाती है। जीव अनंत काल से ठगा जाता रहा है। “वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो।' . मुझे स्वच्छंदी नहीं बनना। स्वच्छंद से मोक्ष नहीं होता। यह स्वच्छंद सद्गुरु के योग से रोका जा सकता है। ऐसे योग की भावना करना कि मुझे किसी सद्गुरु का योग कब होगा? प्रश्न:- कर्म के उदय से मुनित्व आया हो पर यथार्थ ज्ञान न आया हो और उपदेश तो करना पड़े तो क्या करना? . उत्तर :- सत्पुरुष के योग की भावना करना। मत-मतांतर में फँस नं जाना, ऐसा उपदेश करना। स्वयं सत्पुरुष की भक्ति करना और उनकी भक्ति का उपदेश देना। सच्ची वस्तु की भावना से उपदेश करना। सच आएँ तो सब आएँ। सत्पुरुष के प्रति भाव हो, आज्ञा पालन हो ऐसी
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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