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________________ १६५ साधना पथ "कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष; भवे खेद प्राणीदया, त्यां आत्मार्थ निवास।" ३८ आ.सि. “आवे ज्यां एवी दशा, सद्गुरुबोध सुहाय; । ते बोधे सुविचारणा, त्यां प्रगटे सुखदाय।" ४० आ.सि. "ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रगटे निज ज्ञान; जे ज्ञाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण।" ४१ आ.सि. आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं। 'आत्माथी सौ हीन।' आत्मा की पहचान हो तो सफलता है। सद्विचारणा से चेतन और जड़ को जान कर निर्णय करना। मोह, मुख्य कर्म है। वह जाएँ तो केवलज्ञान हो। जब मोह विशेष मंद पड़े तब समकित हो। ज्यों ज्यों वैराग्य उपशम बढ़ेगा, मोह मंद होता जाएगा, सुविचारणा होगी। परिग्रह, पाप है। जितना परिग्रह ज्यादा उतना पाप ज्यादा। सत्पुरुष के योग से थोड़ा वैराग्यउपशम हुआ हो, जो फिर से आरम्भ-परिग्रह में पड़े तो सब चला जाएँ। आरम्भ-परिग्रह, वैराग्य उपशम के काल हैं। वैराग्य-उपशम बढ़ाने के लिए आरम्भ-परिग्रह की निवृत्ति करना। समझ बदलो तो सब बदल जाएँ। आरंभ-परिग्रह साँप जैसा है। यह हो तो वैराग्य-उपशम कब नाश हो जाएँ, कुछ कहा नहीं जा सकता। चाहे परिग्रह थोड़ा हो, किन्तु ‘मेरा है' ऐसा हुआ तो आगे चिन्ता खड़ी हो गई। इसी का नाम मिथ्यात्व है। आत्मा के ज्ञान धन को भूलकर दूसरा धन लेने जाते, आवरण आता है। जब तक आरंभ-परिग्रह हो, तब तक केवलज्ञान न हो। केवलज्ञान न हो तब तक कहीं की कहीं वृत्ति जाती रहती हैं। आरंभ-परिग्रह शत्रु है। ज्ञानी इस जहर को जहर कहते हैं। लेकीन जीवको यकीन नहीं आता। बहुत काल से जीव ने असत्संग का सेवन किया है, इससे आरंभ-परिग्रह से वृत्ति उठती नहीं। जीव को अपनी वृत्ति ठगती है। सच्चा पुरुषार्थ तो यह है कि अनंत काल से जो जाना है, वह भूल जाएँ। इस काल में 'भक्ति और सत्संग विदेश गए हैं।' (श्री.रा.प-१७६) वैराग्य और उपशम की जीव को किंमत नहीं है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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