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________________ १५८ साधना पथ सत्पुरुषों ने सद्गुरु की जो भक्ति निरूपण की है वह भक्ति सिर्फ शिष्य के कल्याण के लिए कहीं है। प्रभुश्रीजी कहते कि हम गुरु बता देगें परन्तु गुरु बनेगें नहीं। फिर भी माने नहि और गुरु बताने वाले को गुरु मानें, गुरु बनना बड़ी जोखमदारी है और गुरु बतानेवाले की भी जवाबदारी है। सन्मार्ग बतावें वह सद्गुरु हैं और उन्मार्ग बतावें वह कुगुर है। कुगुर बननेवाला या बताने वाला बड़े पाप का भागीदार है। सत्पुरुष ने सद्गुरु की भक्ति बताई, वह आत्मा के परम हित का कारण है, अतः उसे थोड़ी देर भी छोड़ता नहीं। सारा दिन और सारी रात भक्ति करता है । उसमें सत्पुरुष के कहे अनुसार चलने का लक्ष्य रहता है। क्योंकि कुछ भी करते हुए सत्पुरुष का लक्ष्य आत्मा के प्रति ही होता है । "निराबाधरूप से जिस की मनोवृत्ति बहती रहती है, संकल्प-विकल्प की मंदता जिस की हुई है, पंच विषय से विरक्त बुद्धि के अंकुर जिसे फूटे हैं, क्लेश के कारण जिसने निर्मूल कर दिए हैं ( कैसे भी प्रसंग में बुरा न मानने की समझ दृढ़ की है); अनेकान्तदृष्टियुक्त एकांतदृष्टि का जो सेवन करते हैं, जिस की मात्र एक शुद्ध वृत्ति ही है, वे प्रतापी पुरुष जयवन्त रहे । हमें वैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए।” (श्री.रा.प.-८०) सत्पुरुष अपना उपयोग आत्मा के प्रति ही रखते हैं, 'देह से भिन्न आत्मा हूँ' यह भूलते नहीं । वे अपनी तरह देह में एकाकार नहीं होते । निरन्तर भेदज्ञान है। ऐसी उनकी आत्मा की चेष्टा में प्रेम-भक्ति होने पर उसी को ही याद करें, उसी की इच्छा, उसी का ध्यान करें तो अपने में भी अपूर्व गुण अर्थात् समकित - आत्मा का अनुभव दृष्टिगोचर हो और उसका अद्भुत आनन्द समझने के बाद जीव दूसरे सर्व स्वच्छंद से वापिस मुड़ता है, और आत्मसुख पाने के प्रयत्न में पर वृत्ति को रोककर आत्मा में लीन होता है। आत्मा में आत्मा के अनुभव की लय लगें तो फिर स्वच्छंद से अविचारी वर्तन स्वयमेव छूट जाएँ । सत्पुरुष की भक्ति से सत्पुरुष की आज्ञा में रहे । प्रत्येक कार्य में सत्पुरुष कैसे रहते हैं? मैं किस तरह से रहूँ तो उनको रुचे? ऐसा विचार कर आत्मा की परिणति उस अनुसार करें तो स्वच्छंद रुके। सत्पुरुष को तो आत्मा में रहना ही प्रिय है,
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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