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________________ साधना पथ ज्ञानी के बोध से जो लाभ हुआ है वह छूट न जाएँ, इस लिए जहाँ जाएँ वहाँ उदासीनता रखें। अल्प भी वस्तु की इच्छा न होने दें। किसी में एक छोटा सा भी गुण देख कर आनन्द होना चाहिए। अपने में कोई भी दोष हो तो, बहुत खेद होना चाहिए। सात व्यसन से न छूटा हो, तो भक्ति नहीं होती। भक्ति, उसके हृदय में नहीं टिकती। सात व्यसन का त्याग हो तो अधोगति न हो। मुझ तो दोष निकाल कर ज्ञानी की ही शरण में रहना है, ऐसी दृढ़ भावना रखना। कोई दोष दूर हो जाए तब आनन्द पा कर फूल नहीं जाना, पर दूसरे दोष निकालना। सम्यक्दर्शन से पूर्व बहुत पुरुषार्थ करना है। आत्मा को मलिन करने वाले दोष हैं। मेरेमें दोष नहीं है, ऐसा कह कर वाद न करना। ज्ञानी का कथन लक्ष्य में रखे, तो सत्संग है। बारम्बार अपने दोष देख कर ठपका देना चाहिए। विषय-कषाय के सामने लड़ना है। समय मात्र भी व्यर्थ न गँवाना। कितनी ही कमाई की, तब यह मानवभव मिला। मैं देह नहीं, आत्म-उपयोग में ही आत्मा है। वह कभी नाश नहीं होती। वचन सुनते ऐसा लगना चाहिए कि देह में आत्मा नाम का कोई पदार्थ है। सुनते सुनते मान्यता में फर्क आता है। अंतर की बात है। वचन की बात नहीं। अन्तर बदले तो सम्यकदर्शन होवे। जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनन्त।" अनन्त दुःख पा कर भी जीव को होश नहीं आई। मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी अनन्त काल से साथ में है। जिसे ज्ञानी का आश्रय है, उनकी आज्ञा पालन करें, तो उसका कल्याण ही है। मिथ्यात्व जाने का यह रास्ता है। अहंकार जाएँ तो जो कोमलता आएँ, मुझे नहीं मालूम, ऐसा हो। सत्पुरुष के वचन सुन कर उल्लास आना चाहिए कि धन्य भाग्य मेरा। इसके बदले यह तो मैं ने सुना है, मुझे आता है, यह तो मैं जानता हूँ, ऐसा माने। उनके वचन मामूली लगे उससे जीवको विश्वास नहीं होता। ज्ञानी के योग से जो लाभ होता है, उसकी महत्ता नहीं लगती। सत्संग में चाहे कैसे भी कड़वे वचन, व्याधि, पीड़ा आए, सब बरछी, भाला हैं तथापि सत्संग छोड़ना नहीं। असत्संग में, जहाँ आत्मा की श्रद्धा छूट जाएँ, वहाँ चाहे लड्डु मिलते हों तो भी न जाना।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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