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________________ साधना पथ १३३ की है। आत्मा उपयोग स्वरूप है। उपयोग में राग-द्वेष विकार हैं। वे निकल जाएँ तो आत्मा में उपयोग रहे। स्वयं स्वरूप में रहे। आत्मा आत्मारूप में रहे, ऐसा करने के लिए सत्संग सत्पुरुष का योग है। जीव आत्मा को भूलता है, यह ही मृत्यु है। 'क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो ! राची रहो?' समय-समय जीव विभाव में जाता है, यह मरण है, यह शत्रु है। किसी का दोष नहीं, अपना ही दोष है। 'तेरे दोषसे तुझे बंधन है यह संतकी प्रथम शिक्षा है।' (श्री.रा.प. १०८) श्री.रा.प.-४४७ (१२०) बो.भा.-२ : पृ.-१२३ जहाँ उपाय न चले, ऐसे काम में बुद्धिमान को खेद कर्तव्य नहीं है। जो बने, वह देखा करो, क्योंकि अपने हाथ में नहीं है। जो बनना होगा, वही बनेगा। ज्ञानी की आज्ञा से चले, तो कर्म बंध न हो। जीव को समता रखना मुश्किल है। प्रवृत्ति आत्मा का धर्म नहीं। सच्ची समझ कर लेनी चाहिए। समझ की कमी है तब तक बाह्य दृष्टि है, इसी से अन्यथा होता है। 'मैं पामर क्या कर सकू?' ऐसा विवेक जिसके हृदय में हो उसे कोई खेद नहीं होता। ___संसार के अनुकूल प्रसंगों में त्याग आना कठिन है। त्याग की भावना भी नहीं होती। ऐसा कुछ करें कि संसार अच्छा न लगे। संसार को, एक क्षण भी याद न करो। संसार में दुःख लगे तो संसार खराब लगे। दुःख तो अच्छा है। वह जीव को जगाता है। प्रतिकूल प्रसंग चिंतकको हितकारी हैं। कोई जीव यहाँ से समकित पाकर नरक में जाएँ, तो भी सम्यक्त्व को संभालकर ले जाते हैं और देवलोक में जाएँ तो खो भी दे। दुःख में आत्मा को कोई हानि नहीं। 'देह दुःखं महाफलं।' जितना पुरुषार्थ करे, उतना आत्मवीर्य बढ़ता है। ___कोई एक भक्त था। वह भगवान की बहुत भक्ति करता। भगवान उस पर प्रसन्न हो गए। वरदान मांगने को कहा; तब भक्त ने कहा, 'भगवन्! मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे दुःख दो ताकि मेरी दृष्टि आत्मा तरफ जाएँ।' संसार सब कल्पित है, आत्मा को दुःखी करनेवाला है। सत्संग हुआ हो,
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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