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________________ साधना पथ 'भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान; . पण ते बन्ने भिन्न छे, प्रगट लक्षणे भान।' ४९ आ.सि. उपरोक्त लक्षण विचारे तो आत्मा देह से भिन्न मालूम हो। देहाध्यास से आत्मा देह समान हो गई है, परंतु दोनों के लक्षण भिन्न भिन्न जाने तो आत्मा भिन्न लगे। 'छे देहादिथी भिन्न आत्मा रे, उपयोगी सदा अविनाश; एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, कडुं ज्ञान तेनुं नाम खास।' आत्मा को लक्षण से और वेदन से भिन्न जान कर अपने में अनुभव करे तो उसमें लीनता आएँ। श्री.रा.प.-४४६ (११९) बो.भा.-२ : पृ.-१२१ - संसार के स्वरूप का तो जीव को अनादि काल से परिचय हैं, अतः राग-द्वेष रूप संसार में जीव अटक गया है। यह संसार जीव को आकर्षित करता है। अपने जैसा बना लिया है। ऐसे संसार में समय मात्र का भी प्रमाद न करना। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। वह प्रत्येक प्रदेश जानने का काम करते हैं। संसारी जीव स्वरूप को शुद्ध रीति से नहीं जानता, अतः वह जो भी जानता है, उसमें राग-द्वेष होते हैं। इस जगत के सब पदार्थों के प्रति इसका उपयोग जाता है। जीव निमित्तवासी है। जब निमित्त के सामने पड़े तब वृत्ति भटकती अटकती है। अभी राग-द्वेष के प्रति वृत्ति है। संसार का स्वरूप राग-द्वेष करावे ऐसा है। प्रदेश-प्रदेश में जीवको आकर्षित करे ऐसा स्वरूप है। अतः इस में वृत्ति रखने की तीर्थंकर भगवन्तों ने मना की है। ज्ञानी कहते हैं, संसार को पीठ दो, संसार की ईच्छा मत करो। . ज्ञानी कहते हैं कि तू इस से बिल्कुल भिन्न है। आत्मा संसारी हो गया है। ज्ञानी की आज्ञापालन करे तो मोक्ष हो। पर इस से छुटे तो मोक्ष हो, आत्मा आत्मा में लीन बने। तू है मोक्षस्वरूप। पर वस्तु आत्मा की नहीं है। आज अन्यत्र आकर्षण होता है, भिन्न-भिन्न पदार्थ में वृत्ति जाती है। वहाँ से उपयोग खींचे तो आत्मा में उपयोग रहे, अर्थात् अन्तर्मुख वृत्ति
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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