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________________ १०५, साधना पथ स्वयं को जिससे लाभ हुआ हो वह बात दूसरों को कहने का मन होता है। पर कृपालुदेव प्रभुश्री को लिखते हैं कि हम जब तक गृहस्थावस्था में हैं, तब तक हमें किसी भी तरह से प्रगट न करना। किसी सत्पुरुष को खोजो, यह कह सकते हो, पर यह सत्पुरुष है, यह आप न कहना। अपना पुरुषार्थ करने को अभी बहुत शेष है। विषय-वासना सर्व प्रथम निकालनी है। प्रिय करने जैसे का जीव को ज्ञान नहीं, तो प्रिय करे तो कहाँ से? हम धर्म करते हैं ऐसा मानता है, पर होती है मिथ्या धर्म वासना। यह खोज खोजकर सब दोष दूर करें। पाँच इन्द्रियाँ के विषय शत्रु हैं, उन्हें निकालें। पाँचों इन्द्रियाँ पुद्गल को बताने वाली हैं। पुद्गल-अनुभव-त्याग से आत्मा की प्रतीति होती है। किसी से प्रतिबंध करने जैसा नहीं। असंग और अप्रतिबद्ध होना है। सत्पुरुष बिना ऐसा कौन कहे? दूसरे तो प्रशंसा करें। मैं कुछ नहीं जानता ऐसा करने को कहते हैं। प्रभुश्रीजी को कृपालुदेव ने कहा आप के पास मुमुक्षु आए तो पढ़ाना। योग्यता बढ़ाने के लिए ब्रह्मचर्य प्रथम साधन है। असत्संग से छूटना और ब्रह्मचर्य में रहना। संसार में हैं तब तक संग तो होगा ही। संग के दो भेद हैं, एक सत्संग और दूसरा कुसंग। आत्मा की तरफ ले जाएँ वह सत्संग और उस से विपरीत असत्संग! मुख्यतः अपने को जिस सत्पुरुष की श्रद्धा हुई वह छुड़वा दे, वह बड़ा कुसंग है। 'संसार ही अनंत कुसंगरूप है (मो.२४)।' कुटुम्ब के कार्य करने में अगर सत्पुरुष की आज्ञा गौण हो जाती है या सत्संग में बाधक हो, यह भी कुसंग है। कुशास्त्र है, वह भी असत्संग है। बड़ा असत्संग तो क्रोध, मान, माया, लोभ है। वह हृदय में रहता है और विपरीतता कराता है। योग्यता की प्राप्ति में ये सब विघ्न हैं। श्री.रा.प.-१९९ (१०१) बो.भा.-२ : पृ.-४५ शास्त्र पढ़ने हों तब निवृत्ति और पाँच इन्द्रियों के विषयों की निवृत्ति चाहिए। निवृत्ति की जीव को जरूरत है। वांचन न हो सके तो मुझे अन्य कोई विचार करना नहीं। ज्ञानी ने जो स्मरण करने को कहा है, विचारने
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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