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________________ सम्यक्चारित्र की पूर्णता (क्रम से) ज्ञान एवं उसकी पूर्णता का विकास का स्वरूप पिछले प्रकरण में हमने स्पष्ट किया है। ___अब हमें मोक्षमार्गी के जीवन में चारित्र का विकास एवं उसकी पूर्णता नियम से क्रम से ही होती है, यह समझना है। ___ वस्तु-स्वरूप की यह कैसी विचित्रता है कि श्रद्धा गुण का सम्यक् परिणमन और उसकी पूर्णता एक साथ (एक ही समय में) होती है किन्तु चारित्र गुण के विकास एवं पूर्णता का स्वरूप एकदम भिन्न ही है। ___ अर्थात् सम्यक् चारित्र का विकास क्रम से ही होता है, भले पूर्णता के लिए समय कम या अधिक लगे। ___ चौथे गुणस्थानवर्ती का चारित्र संयम नाम नहीं पाता; तथापि चारित्र में आंशिक शुद्धता तथा सम्यक्पना तो आ ही जाता है। क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी कषायों का अभाव हुआ है। ___चौथे गुणस्थान से लेकर चारित्र में विकास होता रहता है, बढ़तेबढ़ते ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थान में मोह-परिणाम का सर्वथा उपशम या क्षय होने पर पूर्ण सुख के साथ चारित्र (यथाख्यातरूप) पूर्ण हो जाता है। ___ तथापि सहवर्ती गुणों की अपेक्षा तथा योग एवं चार अघाति कर्मों के सद्भाव से चारित्र में कुछ कमी का भी कथन शास्त्र में मिलता है। इन सभी विषयों का कथन आगे क्रम से देने का प्रयास है। ४६. प्रश्न - श्रद्धा-गुण के सम्यक्रूप परिणमन के साथ चारित्र गुण के सम्यक्प उत्पाद, विकास एवं उसकी पूर्णता का क्या स्वरूप है ? यह स्पष्ट करें। .
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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