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________________ मोक्षमार्ग की पूर्णता करना श्रद्धा गुण का विभाव परिणमन अर्थात् मिथ्यात्वरूप विभावपर्याय है। इसलिए मदादि २५ दोष व्यवहारनय से ही सम्यक्त्व के दोष कहे गये हैं। 50 सम्यग्दर्शन के निःशंकित - निः कांक्षित आदि गुणों के विपरीत शंकाकांक्षा व भय-इच्छा आदि चारित्रगुण के विभाव परिणाम हैं; यह विषय अत्यन्त स्पष्ट है । समयसार के निर्जरा अधिकार में सम्यग्दर्शन के आठों अंगों का वर्णन मूल गाथा, संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ को देखने से भी निःशंकितादि परिणाम चारित्र गुण के पर्यायरूप ही हैं, यह विषय स्पष्ट होता है । जिज्ञासु जन इस प्रकरण को अवश्य देखें। तीन मूढ़तारूप परिणाम तो ज्ञान का विपरीत परिणमन है, उसका आरोप सम्यग्दर्शनरूप पर्याय पर करके व्यवहार से सम्यक्त्व को दोषरूप बताया गया हैं। इसीतरह षड्- अनायतन को भी समझ लेना चाहिए। ३१. प्रश्न - सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और उसकी पूर्णता साथ-साथ ही होती है - ऐसा आप पुनः-पुनः बता रहे हैं; अतः हमें यह शंका हो रही है कि तेरहवें गुणस्थान में सम्यक्त्व को परमावगाढ़ सम्यक्त्व नाम प्राप्त होता है, जो कि शास्त्राधार से प्रमाण है, तब आपके विचारानुसार क्या चौथे गुणस्थान में ही परमावगाढ़ सम्यक्त्व होता है? कृपया स्पष्ट कीजिए । उत्तर - नहीं, चौथे गुणस्थान में परमावगाढ़ सम्यक्त्व नहीं होता । वस्तुतः देखा जाए तो सम्यक्त्व को परमावगाढ़ यह नाम सहचारी केवलज्ञान निमित्त से प्राप्त हुआ सापेक्ष नाम है। सहचर ज्ञान गुण की केवलज्ञानादि विशेष पर्यायों से सम्यक्त्व को परमावगाढ़ विशेषण प्राप्त होता है । यहाँ इस प्रकरण में हमें मात्र श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र गुण के सीधे परिणमन की अर्थात् अन्य गुणों से निरपेक्ष पर्याय का विवेचन करने की
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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