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________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग आत्यन्तिक क्षय (नाश) हो जाने से, अनन्त अपरिमित अनाकुल आनन्द को भोग रहे हैं । इसी प्रकार की अनन्त सामर्थ्यो की पूर्ण प्रगटता सिद्ध भगवान् को हो चुकी है। ऐसी सामर्थ्यो का भंडार सिद्ध भगवान् का आत्मा था, तब ही तो वे सामर्थ्य पर्याय में प्रगट हो सकीं; भंडार में नहीं होती तो पर्याय में प्रगट कैसे हो जाती । १२ आत्मार्थी को उक्त प्रकार के निर्णय होने पर, रुचि के उग्रबल पूर्वक, अनादि से अपरिचित एवं अव्यक्त ऐसे ध्रुवस्वरूप का विश्वास जाग्रत होकर प्रतीति (श्रद्धा) उत्पन्न हो जाती है। और परिणति बाहर की ओर से सिमटकर, अर्न्तमुखी होकर कार्यरत हो जाती है। ऐसी दशा प्राप्त आत्मार्थी, सिद्ध भगवान् को अपने ज्ञान में लेकर ध्रुव में स्थापन कर लेता है । समयसार गाथा १ की टीका में कहा भी है कि " वे सिद्ध भगवान् सिद्धत्व से साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्द (प्रति ध्वनि) के स्थान पर हैं, जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चिंतवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगतिमोक्ष को प्राप्त करते हैं ।" इस प्रकार उनको ध्रुव में स्थापन कर, अर्थात् ध्रुव का स्वरूप सिद्ध समान मानकर, रुचि एवं परिणति का आकर्षण ध्रुव में केन्द्रित करने के लिये, आत्मा की अनन्त सामर्थ्यां के चिन्तन द्वारा, उत्कृष्ट महिमा जाग्रत करता है। उन सामर्थ्यो का संक्षेपीकरण समयसार गाथा २ की टीका के ७ बोलों में समेटकर वर्णन किया है। उपर्युक्त दोनों गाथाओं पर हुए पूज्य श्रीकानजीस्वामी के प्रवचन (जो प्रवचन रत्नाकर में प्रकाशित हो चुके हैं) रुचिपूर्वक स्वमुखापेक्षी भेदज्ञानपूर्वक आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिये मूलतः पठनीय-चिंतनीय एवं अनुसरण करने योग्य हैं आत्मार्थी को स्वकल्याण की दृष्टिपूर्वक उनका अध्ययन अवश्य करना चाहिये ।
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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