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________________ आशीर्वचन . “धर्म जन-जीवन का आधार है और "व्रत" उसकी आधारशिला है। धार्मिक जागृति, उसमें श्रध्दा, निष्ठा एवं भक्ति ही हमारे अन्तस्थल में आध्यात्मिकता का सर्वांग विकास कर हम में देवोपम जीवन का पर्याय निर्मित कर देता है और व्रत हमारे में आत्म शुध्दि, गुण वृध्दि एवं आन्तरिक प्रसन्नता की भावभूमि का निर्माण करता है। श्रावकचार वस्तुत: विकास की प्रथम प्रशस्त श्रेणी है और उसका प्राणभूत तत्व "व्रत" है।व्रत का अर्थ "प्रतिज्ञा" है, संकल्प है और दृढ निष्ठा है। व्रत संख्या की दृष्टि से "द्वादश" हैं जिसमें पाँच अणुव्रत है।अणुका अर्थ "छोटा" होता है। श्रमणों के महाव्रतों की अपेक्षा श्रावकों के हिंसा, असत्य प्रभृति के परित्याग की प्रतिज्ञा मर्यादित रूप से होती है। एतदर्थ वह "अणुव्रत' है। तीन गुणवत है। गुण का अभिप्राय “विशेषता" है। जो नियम पंचविध अणुव्रतों में विशेषता समुत्पन्न करते है, अणुव्रतों के संपालन में सहायक एवं उपकारक होते है, वे गुणवत है। चार शिक्षावत है। शिक्षा का तात्पर्य "शिक्षण" अर्थात अभ्यास है । जिनके द्वारा धर्म का अभ्यास किया जाय,धर्मकी शिक्षा लीजाय।वे शिक्षावत कहलाते हैं। ये सर्व - व्रत अपनी अपनी मर्यादा में उत्कृष्ट है, महत्वपूर्ण हैं यह पूर्णतः प्रगट है कि सामायिक व्रत सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ व्रत है । सामायिक का अभिप्रेत - अभिप्राय "सम-भाव" है। अत:एवं यह सिध्द है कि जब तक अन्तर्मन
SR No.007120
Book TitleSamayik Ek Adhyatmik Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Lunkad
PublisherKalpana Lunkad
Publication Year2001
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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