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________________ जब साधक किसी अयोग्य,कूर निंदक, विश्वासघाती निर्दयी कुकर्मी को देखता है ,तो भी उसके मनमे व्देष या क्रोध पैदा नही होता और वह उन्हे धर्मपथपर लाने की कोशिश करता है । और इस प्रयत्न मे भी वह असफल हुआ तो उसका मन उब्दिग्न नही होता इसतरह से साधक माध्यस्थ भावना को प्राप्त करता है। जब साधक किसी समताभावी धर्मात्मा को पहचान लेता है। तब उसका मन उनके प्रति आनंद प्रेम और श्रध्दासे भर जाता है। इस तरह से प्रमोदभावना पैदा होती है। जैसे जैसे साधक यह अनुभव करता जाएगा कि, मै शरीर नही हूँ। शरीर और शरीर को सुखमय लगनेवाली चीजे अनित्य है। आत्मा अविनाशी है , नित्य है, तो वह अनित्य भाव को प्राप्तकरेगा अपशब्दोंका, शस्त्रोंका प्रहार होने पर भी वह समता मे रहकर सोचेगा कि, आघात मेरे शरीरपर हो रहे है , आत्मापर नही । वह मृत्यु का स्वागत भी हँसते हँसते करता है। क्यो कि उसे पता है कि, फटे वस्त्र की तरह जीर्ण शरीर छूट रहा है। जब भी शरीर या मन, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, मत्सर आदि विकारों के चंगुल में फंसने लगता है। तब वह साक्षीभाव से सावध न होकर उनसे दूर रहने की और आत्मभाव मे रमण करने की कला सीख लेता है। इसतरह साधकधीरे धीरे षडरिपुओंपर काबू पाना सीख लेता है। इसतरह समतायोगी साधक धीरे धीरे अनंत शक्ति संपन्न आत्मा को जागृत एवम् विकसित करता है और समताभाव अंतर बाहय जीवनमे पूर्णतया अपनाने की कोशिश करते हुए धीरे धीरे अपने कर्मबंध नोंका क्षय करने लगता है। कर्मबंधनोंसे मुक्ति ही वास्तवमे परमात्मा बन जाना है। आत्मा को परमात्मा बनाने की क्रिया को ही २९
SR No.007120
Book TitleSamayik Ek Adhyatmik Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Lunkad
PublisherKalpana Lunkad
Publication Year2001
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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