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________________ उपासकों की तरह नंदिनीपिता भी प्रभु दर्शन के लिए सपत्नीक उनके समवसरण में पहुंचे। भगवान की जन कल्याणी दिव्य धर्मदेशना सुनी। वे श्रावक के १२ व्रत ग्रहण करने को उत्सुक हो गये। जहां स्वयं ने २ व्रत ग्रहण किये, वहाँ अश्विनी ने भी महावीर भगवान से १२ व्रत ग्रहण कर लिये। इसके बाद दम्पती ने वर्षों तक शुद्ध मन एवं एकाग्रभाव से व्रतों का पालन किया । नंदिनीपिता ने अश्वानी से कहा "प्रिये, हमें व्रत ग्रहण किये १४ वर्ष बीत गये हैं। हमारा अधिक समय धर्म ध्यान, उपवास, पौषध आदि करते हुए व्यतीत हुआ है। कर्मों की जितनी निर्जरा हमसे संभव हो सकी, की; अब मेरा मन ११ प्रतिमा धारण करने को हो रहा है । मैं अपना कार्य-व्यापार एवं घर-परिवार का सम्पूर्ण दायित्व पुत्र को सौंपकर हमेशा धर्मस्थान (पौषधशाला) में रहना चाहता हूँ। तप की विशिष्ट साधना में अपने जीवन का शेष समय लगाना चाहता हूँ।" चिरकाल से मेरी अभिलाषा थी कि ग्यारह प्रतिमावत की आराधना करते हुए जीवन का अंत हो । अस्तु, आज से तुम अपने पुत्र के पास रहना अथवा साध्वी संघ की सेवा में रहना पर मैं स्वयं उपाश्रय में रहूँगा। पत्नी की स्वीकृति प्राप्त होने पर नंदिनीपिता उपाश्रय में धर्मध्यानमय जीवन व्यतीत करने लगे। २४ घंटों में से अधिकांश समय उनका तप और आत्मस्वरूप का चिंतन करते हुए व्यतीत होने लगा। तपस्या करते-करते जब उनका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया। और जब उन्होंने जान लिया कि धर्म साधना में अब मेरा शरीर साधक न रहकर बाधक सिद्ध हो रहा है तो एक दिन उन्होंने सम्यक् दर्शन पूर्वक अपने अंदर उतर कर देखा तो पाया शरीर के सारतत्व का उपयोग हो चुका है। अब जितने दिन रहेगा, धर्म चिंतन व तपस्या में रुकावट ही पैदा करेगा, अतः उन्होंने संथाराव्रत (संलेखना) ग्रहण कर लिया। ऐसा करते हुए उन्हें एक माह बीत गया था। जीवन का अंतिम क्षण घटने को हुआ, तब उन्होंने नमस्कार महामंत्र की अंतिम रूप से शरण ग्रहण की, वीतराग प्रभु का स्मरण किया और महामंत्र का उच्चारण करते हुए ही देह को विसर्जित कर दिया। 64/महावीर के उपासक
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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