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________________ भी धर्म में दृढ़निष्ठा नहीं रखते, उन श्रमणों का कल्याण बड़े विलम्ब से होता है । अतः जो महाव्रतों का पालन नहीं कर सकते, वे श्रावक व्रतों का ही पालन करें, क्योंकि धर्म ही आत्मा का एक मात्र हितैषी है। श्रमण भगवान महावीर की देशना के एक-एक शब्द को सुरादेव और धन्या ने बड़े ध्यान से सुना। देशना समाप्त होने पर सुरादेव ने भगवान से कहा - "भन्ते. धर्म से रहित जीवन गंधहीन पृष्प, लवणहीन भोजन और प्राणहीन देह के समान है, यह सब मैंने आपकी वाणी सुनकर जाना है। मैंने यह भी जाना है कि कर्मक्षय द्वारा जन्म-मरण से छूटने के लिए महाव्रतों का पालन अनिवार्य है। परन्तु प्रभो, मैं पूर्णतः चारित्र का पालन करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं। अतः मुझे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-श्रावक के इन बारह व्रतों को ग्रहण करने की अनुमति दीजिए, जिससे मैं भी भवसागर पार करने वाला पथिक बन सकू। "हे भव्य, जैसा करने में तुम्हारी आत्मा सुख का अनुभव करे, तुम वैसा ही करो।" अगली बात, भगवान बोले-“पर धर्मपालन में विलम्ब मत करो।" सुरादेव और धन्या ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिये और वह निष्ठापूर्वक श्रावक धर्म का पालन करने लगा। उसका चिन्तन निर्मल होता गया। यह सम्पत्ति मेरे साथ नहीं जाएगी, यह सोचकर सुरादेव ने धन से आसक्ति त्याग दी और घर का समस्त भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंप दिया। अब उसे न तो व्यापार के हानि - लाभ से कोई मतलब रहा और न किसी के लेन-देन से | सुरादेव पौषधशाला में रहकर पूरा समय धर्म की आराधना करते हुए व्यतीत करने लगा। . एक बार सरादेव पौषधशाला में ध्यानस्थ बैठा था। तभी एक देव उसे ध्यान से विचलित करने के विचार से आया। देव का रूप अतिशय डरावना था। उसकी आवाज भी बहुत भयंकर थी। भयंकर आवाज में ही देव ने श्रावक को चुनौती दी - "हे मूढ श्रावक. आज अभी से त मेरे आदेश से धर्म का ढौंग छोड़ दे। अगर तू मेरी बात नहीं मानेगा तो बहुत-बहुत पछतायेगा। मैं तेरे सामने ही एक-एक करके तेरे तीनों पुत्रों की हत्या कर, उनके मान्स पिंडों को उबलते तेल में डालूंगा। इस तरह तुझे पुत्र शोक दूंगा। यदि तू नहीं मानेगा तो फिर तुझे भी खौलते तेल में डालूंगा, तब तू तड़प-तड़प कर मरेगा। देव की चुनौती पर सुरादेव ने जरा भी ध्यान नहीं दिया। वह ध्यान में अविचल बैठा रहा। अब 32/महावीर के उपासक
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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