SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय - 13 वनस्पति और जैन आहार शास्त्र - वनस्पति हमारे आहार के प्रमुख स्रोत हैं। ये हमें 1. अशन (अन्न और दालें), 2. पान (दुग्ध, घृत, जल, व फल आदि), 3. खाद्य (मिठाई, पौष्टिक खाद्य) एवं 4. स्वाद्य (लोंग, इलायची आदि) अनेक कोटि के पदार्थों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदान करते हैं। इनके अनेक प्राकृतिक रूप होते हैं- 1. कच्चे या अपक्व, 2. कालपक्व, 3. अनग्निपक्व या 4. अशस्त्र परिणत। ये प्राकृतिक रूप में पाये जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि इन्हें प्राकृतिक रूप में साधुओं और उच्चतर कोटि के श्रावकों को नहीं खाना चाहिये, पर सामान्यजन और पाक्षिक श्रावक इनका प्राकृतिक और परिवर्तित रूप में भी अपने आहार में उपयोग करते हैं। शास्त्रों में प्राकृतिक आहार्य वनस्पतियों के लिये आम, आमक, आर्द्र, सचित्त और अनग्निपक्व आदि अनेक शब्द आये हैं जिनका अर्थ प्रायः एक-सा ही है। तथापि, क्षु. ज्ञानभूषण जी' ने सामान्यतः इनको सचित्त एकेन्द्रिय जीव कहा है। पं. आशाधर ने भी इन हरितकायों को सचित्त ही कहा है। साथ ही, उन्होंने 'सचित्त' शब्द को 'अभक्ष्य' शब्द से भिन्न अर्थयुक्त माना है। अभक्ष्य केवल वे पदार्थ माने हैं जो त्रसघात-समाहारी हों। श्वेताम्बर ग्रंथों में, 'अशस्त्रपरिणत' शब्द भी आया है जिससे सचित्त का ही बोध होता है। वनस्पतियों के भेद-प्रभेद शास्त्रों में, सामान्यतः वनस्पति के दो प्रकार बताये गये हैं: 1. प्रत्येक शरीरी (एक-शरीर-एकजीव) और 2. साधारण शरीरी (एक-शरीर-अनेक जीव)। इनमें प्रत्येक को 1. सप्रतिष्ठित (जीव-आधारित, सामान्यतः परजीवी) और 2. अप्रतिष्ठित के रूप में पुनः द्विधा वर्गीकृत किया है । इनमें से धवला के अनुसार, बादर-निगोद-प्रतिष्ठित योनिभूत वनस्पति मूली, अदरक, सूरण, थूहर आदि हैं और बादर-निगोद-अयोनिभूत-प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीरी वनस्पति में निगोद तो रहते हैं, पर इनका विकास नहीं होता। इसके विपर्यास में बादर-निगोद-अप्रतिष्ठित-प्रत्येक शरीर वनस्पति शुद्ध प्रत्येक शरीरी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy