SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (320) : नंदनवन व्याकरणातीत भाषा है। यह तत्कालीन बहुजन-बोधगम्य भाषा है। उत्तरवर्ती युग में जब राजनीति या अन्य कारणों से मगध में जैनधर्म का हास हुआ और मथुरा जैनों का केन्द्र बना, तो यह स्वाभाविक था कि अस्मिता के कारण इसका नाम-रूप परिवर्तन हो। इसमें अब शौरेसनी की प्रकृति की अधिकता समाहित होने लगी। फिर भी यह मिश्रित भाषा तो रही है। शिरीन रत्नागर ने भी दो भाषाओं के मिश्रण से उत्पन्न नयी भाषा के विकास के कारणों की छानबीन में इसे मिश्रित भाषा ही बताया है। इसको पश्चिमी भाषा-विज्ञानियों ने जैन शौरसेनी इसीलिए कहा है कि यह शुद्ध शौरसेनी नहीं है। 'जैन' शब्द लगने से उसमें मागधी या अर्धमागधी का समाहार स्वयमेव हो जाता है। इसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं | चूंकि यह शुद्ध शौरसेनी नहीं है, इसलिए कुछ विद्वान 1979 में ही रयणसार के नव संस्करण के पुरोवाक् में यह लिखने का साहस कर सके कि मुद्रित कुन्दकुन्द साहित्य की वर्तमान भाषा अत्यन्त भ्रष्ट एवं अशुद्ध है। यह बात उनके सभी ग्रंथों के बारे में है। वे यह भी कहते हैं कि यह स्थिति भाषा ज्ञान की कमी के करण हुई है। यह जैन शौरसेनी के सही रूप को न समझने का परिणाम है। फलतः उन्होंने रयणसार, नियमसार और समयसार आदि ग्रन्थों की भाषा के सन्दर्भ में शुद्ध शौरसेनीकरण की प्रक्रिया अपनाई है। आगम-तुल्य ग्रंथों का सम्पादन ___ इस शौरसेनीकरण की प्रक्रिया का नाम 'सम्पादन' रखा गया है। इसमें 'पुरोवाक्' 'मुन्नुडि' हो गया है। समयसार के सम्पादन का आधार 22 मुद्रित और 35 हस्तलिखित प्रतियों में से 1543 ई. (1465 शक) की प्रति को बनाया गया है जो समालोचकों को उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। यही नहीं, 1993 में तो यह स्थिति रही कि सम्पादित समयसार (1978) को उपलब्ध कराने में भी असमर्थता रही। हां, उसे श्रेष्ठीजनों के विवाह में वितरण की समर्थता अवश्य देखी गई। इस प्रक्रिया में सामान्य यो 'विद्यार्थी संस्करण की मुहर लगाकर सम्पादन के सर्वमान्य टिप्पण देने जैसी परम्परा के अपनाने के प्रति तीव्र अरुचि स्पष्ट दिखती है। इस परम्परा व्याघात को सुझावों के बावजूद भी नए संस्करण में भी पोषित किया गया है। इस प्रकरण में पूर्व-प्रकाशित समयसारों में पाए गए (और अब सम्पादक-चयनित) शब्द रूपों का समर्थन महत्त्व नहीं रखता क्योंकि वे भाषिक आधार पर नहीं, अपितु अन्यत्र उपलब्धता या अर्थ-स्पष्टता के आधार पर दिए गए हैं। उन दिनों शौरसेनी भाषा विज्ञानी ही कहाँ थे?12 सम्पादन की इस प्रकिया में कुन्दकुन्द साहित्य की प्रारम्भिक उपलब्ध पाण्डुलिपियों की भाषा में विरूपता आई है। पहले मूल का अर्थ करने में ही भिन्नता देखी जाती थी अब मूल शब्द की भिन्नता भी की जा रही है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy