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________________ आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : (311) पंचामृताभिषेक, दिगम्बर साध्वियों का पद आदि परम्परायें इसी कोटि में आती हैं । हिरवंश पुराण आदि में इनका उल्लेख और वर्णन है । 5. सामायिक और प्रतिक्रमण : हमनें इन प्रक्रियाओं में मूल प्राकृत पाठों के साथ उत्तरवर्ती अनेक संस्कृत के पाठ भी स्वीकार किये । 6. भट्टारकों की परम्परा : हमने निग्रंथ संस्था के अन्तर्गत अपने संरक्षण और धर्म परिरक्षण के लिये तेरापन्थ और बीसपन्थ की परम्परा स्वीकृत की और शिथिलाचार के साथ मुनि-परम्परा को भट्टारक के रूप में परिवर्तित होते हुआ देखा है । उनकी कोटि पर आज किंचित् प्रश्न उठाये जा रहे हैं । यह ऐतिहासिक युगों की विवशताओं के कारण हमें स्वीकृत करना पड़ा । उनका उल्लेख आगमों में नहीं है, पर इनके अस्तित्व और प्रतिष्ठा से कौन अपरिचित है ? 7. बाईस अभक्ष्यों की धारणा :आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है कि भोगभूमियों एवं कुलकरों के युग में लोग प्राकृतिक कंद, मूल, पत्र, पुष्प और फल ही खाते थे । क्रमशः अग्नि और कृषि आई । इससे विभिन्न प्रकार के वीजान्न एवं वनस्पति पकाकर खाये जाने लगे । उत्तरवर्ती काल में जब हिंसा-अहिंसा का विवेक विकसित हुआ, तो आचारांग, मूलाचार तथा बाद में अनेक ग्रंथो में कुछ पदार्थों की अभक्ष्यता निरूपित की गई। इन अभक्ष्यों की संख्या का उल्लेख दसवीं सदी तक के ग्रन्थों में नहीं मिलता । आचारांग-2 पेज 12 (आचारांगचूर्णि) में अभक्ष्यता के ग्यारह आधार बताये गये हैं जिनसे हिंसा-अहिंसा की तीक्ष्णता प्रकट होती है। यह कितनी व्यावहारिक है, यह बात अलग है । इसके विपर्यास, रत्नकरंडश्रावकाचार आदि दिगम्बर ग्रंथों में यह अधिक व्यापक है। इनमें (1) त्रस जीव घात (2) प्रमादोत्पादकता (3) स्वास्थ्य हानि (4) लोक विरुद्धता (5) अल्पफल बहुविघात एवं (6) अपक्वता के आधार बताये गये हैं । भगवती 18.10 में बताया है कि सरसों, • उड़द और कुलत्थ (और अन्य अनेक वनस्पति भी) तभी भक्ष्य होते हैं जब वे शस्त्र-परिणत, एषणीय, याचित (साधु के लिये) और लब्ध हों । वहां वनस्पतियों के लिये शस्त्र-परिणमन की विधियां भी बताई गयी हैं | गृहस्थ भी प्रायः इनको इसी रूप में खाते होंगे । इससे लगता है कि किसी समय अग्नि-पक्वता मात्र भक्ष्यता का आधार नहीं रही होगी । इस प्रकार अभक्ष्यता की धारणा तो प्राचीन है, पर उनकी निश्चित संख्या की धारणा उत्तरवर्ती है। अतः यह स्पष्ट है कि अभक्ष्य पदार्थों की कोटि और संख्या समय-समय पर परिवर्तित होती रही है । इसी प्रकार भक्ष्य पदार्थों की कोटियां 9-18 के बीच परिवर्तित हुई हैं । 8. पुरुषों और महिलाओं की कलायें : यद्यपि पुरुषों की 72 कलायें मानी जाती हैं, पर इनके नाम भिन्न-भिन्न ग्रंथों में पृथक-पृथक् हैं। ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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