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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १५ पञ्चव्रतधारिणां भावनान्तरनिरूपणम् ४८९ नालिकया परिप्रापिताऽशेषरसास्वादनपरिवर्यमानपोषः पुरीषमध्यासीनः परिपूर्णावयवोपचितः सन् परिपाकवशान्मातृगर्भयोनिविवरनिर्गतः मातृदुग्धाहाराऽऽसेवनोपचितशोणितमांसकीकसासंघातः पुरीषमूत्रयुक्तः श्लेष्मपित्तवायुधातुवैषम्यप्रकोपोद्भूतशोथः, गण्डौष्ठतलादिसंस्पर्शाद्वा गलच्छोणितलवलसिकापूयपटलप्रायपरिणामः सर्वावस्थासु-अशुचिरेवकाय इत्येवं भावयेत् । इत्येवं भावयतश्च पूर्वोक्तलक्षणसंवेगवैराग्ये भवतः । तत्रा-ऽऽरम्भपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिर्धर्मे बहुमानो भवति,शरीरभोगसंसाराभ्यां च निर्विष्णता वैराग्यभावः वैमुख्यमुद्रेगः सम्भवतीति भावः ॥ मूलसूत्रम्-"देवा चउव्विहा, भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय वेमाणियभेया-"॥१६॥ छाया ---"देवाश्चतुर्विधाः भनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्क-वैमानिकमेदात्-"॥१६॥ तत्त्वार्थदीपका–नवविधेषु जीवादितत्वेषु क्रमप्राप्तं चतुर्थं पुण्यतत्त्वं प्ररूपयितुं चतुर्थाध्यायं कृतः तत्र-पुण्यतत्त्वं सविशेष प्ररूप्य तत्फलभूतां देवगति प्ररूपयितुं प्रथमं देवभेदान् प्ररूपयति-"देवा चउव्विहा, भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियभेया-" इति । देवाःरूप में परिणमन होता है । कुछ महोनों के पश्चात् शिर, हाथ, पैर, आदि अवयब प्रकट होते हैं। गर्भ में स्थित जीव माता के द्वारा खाये हुए आहार के रस को रसहरणी नाड़ी के द्वारा ग्रहण करता है और उसी से अपना पोषण प्राप्त करता है । वह मैले में निवास करता है । जब अवयव परिपूर्ण हो जाते हैं तव परिपक्व होकर माता के गर्भ से बाहर निकलता है। फिर माता के दूध का आहार करके उसमें रुधिर मांस आदि धातुओं का उपचय होता है । मलमूत्र से युक्त होता है । क्या, पित्त एवं वात रूप धातुओं की विषमता के प्रकोप से उसमें सूजन उत्पन्न हो जाती है ! गंड, ओष्ठ तलादि के स्पर्श से रक्त बहने लगता है, पीव हरता है ! इस प्रकार यह शरीर सभी अवस्थाओं में अशुचि ही बना रहता है। ऐसी भावना करनी चाहिए । इससे संवेग वैराग्य की उत्पत्ति और वृद्धि होती है । तात्पर्य यह है कि आरंभ परिग्रह आदि में दोष देखने से उनके प्रति अरुचि और धर्म में बहुमान उत्पन्न होता है। शरीर-भोग और संसार से विरक्ति होती है, विमुखता होती है, उद्वेग उत्पन्न होता है ॥१५॥ सूत्राथे-'देवा चउव्विहा' इत्यादि सूत्र १६ देव चार प्रकार के हैं .... भवनपत्ति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ॥१६॥ तत्त्वार्थदीपिका--जीव आदि नौ तत्त्वों में से क्रमप्राप्त चौथे पुण्यतत्त्व की प्ररूपणा करने लिए चौथे अध्याय का निर्माण किया गया है । इसमें विशिष्ट रूपसे पुण्यतत्त्व की प्ररूपणा करके पुण्य के फल से प्राप्त होने वाली देवगति की प्ररूपणा करने के लिए सर्वप्रथम देवों के भेद कहते हैं શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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