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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १५ धर्माधर्माकाशानां लक्षणानि २२९ स्तिकायः अद्धासमयश्चेति । अथ धर्मद्रव्यस्य गत्युपकारनिरपेक्षमेव काकादिपक्षिणामुत् पतनं वरूद्धज्वलनं वायोश्च तिर्यग्गमनम् अनादिकालीनात्स्वभावादेव भवति इतिचेदत्रोच्यते । धर्मद्रव्योपकारनिरपेक्षायां स्वाभाविकयां काकादिगतौ स्वीक्रियमाणाया मुक्तहेतुदृष्टान्तौ नानवद्यौ स्तः, यतः सर्वेषामेव जीवपुद्गलादीनामासादितगतिपरिणामानामनुग्राहकतया धर्ममभ्युपगच्छन्ति-अनेकान्तवादिनः । एवं सर्वेषामेव जीवपुद्गलादीनां द्रव्याणामासादितस्थितिपरिणतीनामुपग्राहकतयाऽधर्ममनुसरन्ति-आर्हता अनेकान्तवादिनः । एवमेव हि-आसादितावगाहपरिणतीनां जीवपुद्गलादीनामुपग्राहकतयाऽऽकाशमभ्युपगच्छन्ति जैनसिद्धान्तानुसारिणो जैनाः । एतैश्च त्रिभिर्धर्माऽधर्माकाशैर्न गतिस्थित्यवगाहा जीवपुद्गलादीनांविधीयन्ते अपितु-केवलं साचिव्यमात्रेणोपकारकत्वमेतेषां धर्मादीनां वर्तते । अथैवमपि-लोकव्यापि धर्मद्रव्यास्तित्ववादिनोऽनेकान्तवादिनो धर्मद्रव्यसान्निध्यमात्रमेव धर्मद्रव्योपकारो गत्युपग्रहः । एवम्-अधर्मद्रव्योपकारः स्थित्युपग्रहोऽपि अधर्मद्रव्यसान्निध्यमात्रमेव तन्मात्रत्वात् एवमेवाऽवग्रहोपग्रहोऽपि आकाशद्रव्योपकारः तत्सान्निध्यमात्रमेवेति चेदुच्यते ।। जीवपुद्गलानां ये गतिस्थित्यवगाहा भवन्ति ते स्वतः परिणामाभावात् परिणामिकर्तृनिमित्तकारणत्रयव्यतिरिक्तोदासीनकारणान्तरसापेक्षात्मलाभा अवगन्तव्याः अस्वाभाविकपर्यायत्वे सति कदाचिद् भावात्-उदासीनकारणजलापेक्षात्मलाभमत्स्यगत्यादिवत् तद् ऐतेषाममूर्तानामपि सतां गमकम् एकैकस्यासद्भावे न भवति, न वा-तदन्येनोपक्रियते, शंका-धर्मास्तिकाय के गति-उपकार के विना ही पक्षियों का उड़ना, अग्नि का ऊर्ध्व ज्वलन और वायु का तिर्छा चलना अनादि कालीन स्वभाव से ही देखा जाता है । समाधान-धर्मद्रव्य के उपकार के विना ही, काक आदि पक्षियों की स्वाभाविक गति मानने में उक्त हेतु और दृष्टांत समीचीन नहीं हैं, क्योंकि अनेकान्तवादी गतिपरिणाम को प्राप्त सभी जीवों और पुद्गलों की गति में धर्मद्रव्य को अनुग्राहक स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार अनेकान्तवादी आर्हत स्वयं स्थितिपरिणाम में परिणत सभी जीवों और पुद्गलों की स्थिति में अधर्मद्रव्य को सहायक मानते हैं । इसी प्रकार जैनसिद्धान्त के अनुयायी जैन सभी अवगाहपरिणाम में परिणत जीव पुद्गल आदि के अवगाह में आकाश को सहायक मानते हैं । धर्म, अधर्म और आकाश, ये तोन द्रव्य जीव और पुद्गल की गति, स्थिति और अवगाह को उत्पन्न नहीं करते हैं, अपितु केवल सहायता मात्र करते हैं । जीवों और पुद्गलों की जो गति, स्थिति और अवगाहना होती है, वह स्वतः परिणाम का अभाव होने से परिणामी कर्ता और निमित्त इन तीनों कारणों से भिन्न, अलग उदासीन कारण से उत्पन्न समझना चाहिए । क्योंकि वह स्वाभाविक पर्याय न होते हुए कभी-कभी होती है; जैसे मत्स्य की गति उदासीन कारण जल की सहायता से होती है । इस प्रकार यद्यपि धर्मादि द्रव्य अमूर्त हैं, फिर भी गति आदि कार्य उनके गमक होते हैं; क्योंकि इनके अभाव में ये कार्य हो नहीं सकते और एक का कार्य दूसरा कोई भी नहीं कर सकता । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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