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________________ तत्त्वार्थसूत्रे रूपमेध निर्दुष्टत्वात् मूतिरुच्यते । अथ यदि रूपमेव मूतिरुच्यते तदा-गुणमात्रं मूर्तिशब्दस्य विषयः प्रसज्येत तस्माद् न रूपमेव मूर्तिरितिचेन्न । द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण रूपस्य मूर्तित्वप्रतिपादनात् न खलु द्रव्यस्य रूपादयः केचन मूर्त्या विविक्ततया समुपलभ्यन्ते, तस्मात्-सैव तावद् मूर्तिव्यस्वभावानयनग्रहणमासाद्य रूपमिति व्यवहियते । अतएव मूर्त्याश्रयाश्च स्पर्शादय उच्यन्ते, स्पर्शादयस्तावद् मूर्ति न परित्यजन्ति, परस्परसहचरितत्वात् । यत्र खलु रूपपरिणामो भवति तत्राऽवश्यमेव स्पर्शरसगन्धा अपि तिष्ठन्त्येव तस्मात्-स्पर्शादिचतुष्टयं सहचरितं वर्तते । परमाणावपि-एतच्चतुष्टयं विद्यत एव, किन्तुसर्वेषामेकरूपत्वात् परमाणवश्चतुर्गुणादिजातिभेभाजां न भवन्ति केवलमयमेव विशेषो यत्किलकिमपि द्रव्यमुत्कटां गुणपरिणतिं प्राप्य तमेव परित्यजति तथाहि लवण-हिङ्गुनी संघातपरिणामसामर्थ्यशालिनी नयनस्पर्शनग्रहणविषयतामासाद्य-उद्के विलीने सती रसनघ्राणग्रहणयोग्यतां प्राप्नुतः। किन्तु तत्र वर्णस्पर्शी विद्यमानावपि ग्रहीतुं न पार्यते परिणामविशेषवत्त्वात् । ___ एवं पार्थिवजलीयतैजसवायवीयपरमाणवोऽपि एकजातीयाः कदाचित् कञ्चित् परिणाम धारयन्तो न सर्वेन्द्रियग्रहणयोग्या भवन्ति । तस्मात-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शा एव विशिष्टपरिणामानुगृहीताः सन्तो मूर्तित्वेन व्यपदिश्यन्ते इत्यन्यदेतत् ॥ ३॥ शंका-यदि रूप को ही मूर्ति माना जाय तो मूर्ति शब्द का वाच्य अकेला गुण ही होगा । इस कारण रूप ही मूर्ति नहीं हैं । समाधान-द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से रूप को मूर्ति कहा गया है। द्रव्य के रूप आदि उससे भिन्न प्रतीत नहीं होते । इस कारण वही मूर्ति द्रव्यस्वभाव के आनयन ग्रहण आदि को प्राप्त करके रूप कहलाती है। अतएव स्पर्श आदि मूर्ति के आश्रित कहे जाते है। स्पर्श आदि मूर्ति का परित्याग नहीं करते हैं,, क्योंकि वे परस्पर में सहचर है जहाँ रूप होता हैं, वहाँ स्पर्श रस और गंध, भी अवश्य रहते हैं । इस कारण स्पर्श आदि चारों सहचर हैं। परमाणु में भी रूप आदि चारों गुण बिद्यमान रहते हैं। किन्तु वे सब एक रूप होकर रहते हैं, अतः परमाणु चतुर्गुण आदि जातिभेद वाले नहीं होते। विशेषता केवल यही है कि कोई द्रव्य उत्कट गुणपरिणति को प्राप्त होकर उसे त्याग देता है । उदाहरण के लिए नमक और हींग को लीजिए । जब वे संधान रूप होते हैं तो नेत्र, घ्राण और स्पर्शन इन्द्रियों के विषय होते हैं, किन्तु जब जल में घुस जाते हैं तब रसना और घ्राण के ही विषय रह जाते हैं। वर्ण और स्पर्श तो उनमें उस समय भी रहता है मगर वह इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह उनके परिणमन की विशेषता है । इसी प्रकार एक जातीय पार्थिव, जलीय तैजस और वायवीय परमाणु भी कभी किसी परिणमन को प्राप्त होकर सब इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं होते हैं। इस कारण रूप, रस, गंध और स्पर्श ही विशेष परिणाम से युक्त होकर मूति कहलाते हैं ॥३॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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