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________________ १७४ तत्त्वार्यसूत्रे ___ अत एवात्र-"अजीवाः-" इत्येवोक्तम्, न तु अजीवकाया इति-,अजीवास्तिकाया इति वा, अस्तिशब्दस्य ध्रौव्यार्थप्रतिपादकतया-कायशब्दस्य च प्रचीयमानाकारतारूपसमुदायार्थकतया विभागे सत्येव समुदायः सम्भवतीति धर्मादिद्रव्यप्रदेशानां विभक्तेऽपि अद्धारूपैकसमयरूपस्य कालस्य विभागासम्भवेन समुदायत्वासम्भवात् । अद्धाचाऽसौ समयश्चेति-अद्धासमयः, स च सार्धद्वयद्वीपान्तर्वर्ती एकः समयः परमसूक्ष्मो निर्विभागोऽवगन्तव्यः तस्य कायत्वं न सम्भवति, समुदायस्य कायशब्दवाच्यत्वात् । अजीवकायशब्देन कालस्य ग्रहणं न स्यात् ,केवलम्-अजीवा इति कथने तु-जीवभिन्नानां सर्वेषामपि तेन ग्रहीतुं शक्यतया कालस्यापि अद्धासमयरूपस्य जीवभिन्नतया अजीवशब्देन ग्रहणसम्भवात् "धर्माधर्माकाशकालपुद्गला अजीवा-" इत्युक्तम् , तत्र-धर्माधर्मयोरुभयोरपि प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वम्, आकाशस्य चाऽनन्तप्रदेशत्वम् । वस्तुतस्तु-लोकपरिमाणस्याकाशस्याऽसंख्येयप्रदेशत्वम् लोकालोकरूपसमस्ताकाशस्य पुनरन्तप्रदेशत्वमवसेयम् । कालस्य तु- अद्धासमयैकसमयरूपस्य नाऽसंख्येयप्रदेशत्वं-न वाऽनन्तप्रदेशत्वम् । में काल को ग्रहण नहीं किया गया है। फिर भी धर्मादि की तरह काल में भी अजीवत्व की सत्ता होने से अजीव द्रव्यों में उसे ग्रहण करना अनुपयुक्त नहीं है ! इस कारण यहाँ 'अजीव' ऐसा ही कहा गया है 'अजीवकाय' ऐसा अथवा 'अजीवस्तिकाय' ऐसा नहीं कहा गया है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ यहाँ प्रदेश है और 'काय' शब्द का अर्थ 'समूह' है । तात्पर्य यह है कि जो द्रव्य प्रदेशों का समूह रूप हो वही अस्तिकाय कहलाता है ! काल प्रदेशों का समूह नहीं एक समय रूप है; क्योंकि अतीत काल कि विनष्ट हो जाने से सत्ता नहीं और भविष्यत् काल अनुत्पन्न होने से सत् नहीं है। सिर्फ वर्तमान काल को सत्ता होती है और वर्तमान काल एक समय ही है । इस कारण काल की अस्तिकायों में गणना नहीं की गई है। समय आदि रूप काल अढ़ाई द्वीप के अन्दर ही होता है । (अढ़ाई द्वीप के बाहर चन्द्र सूर्य आदि स्थिर होने से वहाँ काल की कल्पना नहीं की जाती ।) वह एक समयरूप है, अत्यन्त सूक्ष्म है, निर्विभाग है । उसे 'काय' नहीं कह सकते, क्योंकि 'काय' शब्द समूह वाचक है। अगर धर्म आदि को 'अजीवकाय' कहा जाय तो काल का उनमें ग्रहण नहीं हो सकता; मगर प्रकृत सूत्र में केवल अजीव द्रव्यों का ही निर्देश किया गया है, अतएव जीव से भिन्न होने के कारण काल का भी उनमें समावेश होता है । इनमें से धर्म और अधर्म के असंख्यात असंख्यात प्रदेश है और आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। वास्तव में लोकपरिमित आकाश असंख्यात प्रदेशी है और लोकालोक रूप सम्पूर्ण आकाश શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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