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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया--दानं लाभश्च भोगश्च, उपभोगो वीर्य तथा । पञ्चविधमन्तरायं (कर्म), समासेन व्याख्यातम् ॥ १५ ॥ टीका--' दाणे लोभे य' इत्यादि-गाथेयं सुगमा ॥ १५ ॥ कर्मप्रकृतयः कथिताः, संप्रत्युत्तरग्रन्थसम्बन्धं प्रदर्शयन् प्राह-- मूलम् -एयाओ मूलपयडीओ, उत्तराओ य आहिया। पएसग्गं खितकाले ये, भावं चादुत्तरं सुंण ॥१६॥ छाया--एता मूलप्रकृतयः, उत्तराश्च आख्याताः । प्रदेशागं क्षेत्रकालौ च, भावं चात उत्तरं शणु ॥१६॥ टोका--' एयाओ' इत्यादिएता मूलप्रकृतय आख्याताः, उत्तराश्च-उत्तरमकृतश्च आख्याताः। प्रदेशागं अब अन्तराय कर्म की प्रकृतियां कहते हैं-'दाणे' इत्यादि। अन्वयार्थ-(दाणे-दाने) दान देनेमें, (लाभे य-लाभश्च) लाभ होनेमें, भोग भोगने में, (उवभोगे-उपभोगे) उपभोग भोगनेमें तथा शक्तिके (वीरिए -वीर्य) विकास होने में जो कर्म बाधक बनता है वह अन्तराय कर्म है। और इन्हीं दान आदिकी अपेक्षा यह (अंतरायं समासेन पंचविहं वियाहियं-अन्तराय समासेन पञ्चविधं आख्यातम् ) अन्तराय कर्म संक्षेपमें पांच प्रकार का काहा है ॥१५॥ मूल और उत्तर प्रकृतियां कहकर अब सूत्रकार आगे के लिये सम्बन्ध कहते हैं- एयाओ' इत्यादि । अन्वयार्थ-(एयाओ मूलपयडीओ-एता मूलप्रकृतयः) इस प्रकार ये मूल प्रकृतियां-(उत्तराओ य अहिया-उत्तराश्च आख्याताः) और उत्तर प्रकृ वे भतशय भनी प्रकृति-य। ४९ -" दाणे " त्या । अन्वयार्थ -दाणे-दानं हान वामां, लाभेयलाभश्च साल थवाभां, लोग मोशवपामi, उवभोगे-उपभोगे उपयोगवामा तथा वोरिए-वीय शतिना विकास थवामा २४ माघमने छेते मतशय ४ छ भने अंतरायं समासेन पंचविहं वियाहियं-अन्तराय समासेन पंचविधं व्याख्यातम् अन्तराय में सपथी પાંચ પ્રકારનાં છે ૧પ. મૂળ અને ઉત્તર પ્રકૃતિ કહીને હવે સૂત્રકાર આગળના માટે સંબંધ र छ-" एयाओ इत्यादि। सन्क्याथ-एयाओ मूल पयडिओ-एताः मूल प्रकृतयः । प्रमाणे ये भूग प्रति उत्तराओ य आहिया-उत्तराश्च आख्यातः मने उत्तर प्रकृति ४ाई उत्तराध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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