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________________ प्रयिदशिनीटीका अ. ३२ रागस्यानर्थमूलनिरूपणम् ४८७ तत्र रक्षणं विनाशहेतुग्योऽग्निलतरकरादिश्य परिपालनं, संनियोगरतु स्वपरप्रयो जनेषु सग्यरच्यापारणं, तत्र, तथा-ध्यये अग्निजलाटिना विनाशे वियोगे च3 राज तरकरादिकृतापहराद् विहरे च सति तरय रूपानुरागिणः पुरुषस्य क्व मुखम्न क्वचित् सुखं भवति । मुरूपकलत्रय रितुरगादीनामुपार्जन रक्षणादिषु रूपानुरागी दुःखमेवानुभवतीति भावः। ननु सुरूपद्रव्यसमुपार्जनादिषु मुख माभूत् , संभोगकाले तु भविष्यतीत्याशङ्कयाह-संभोगकाले य' इत्यादिसंभोगकाले च-उपभोगसमयेऽपि अतृप्तिलाभा-न तृप्तिलाभ:-अतृप्तिलामःतरिमश्च सति तृप्तिप्राप्त्यभावे च क्व सुखमित्यन्वयः । बहुशोऽपि रूपदर्शने करने में लग जाता है एवं उसका उपार्जन होने पर इसका विनाश न हो जाय' इस ख्याल से उसकी रक्षा करने में तत्पर रहा करता है। एवं अपने प्रयोजन में तथा पर के प्रयोजन में उसका उपयोग करता है। यदि वह वस्तु (वये विओगे-व्यये वियोगे) नष्ट हो जाती है अथवा उससे छिनी जाती है तो ऐसी स्थिति में (कहिं सुह-तस्य क्व सुखम् )उस रूप विमोहित मतिवाले प्राणी के लिये एक क्षण भर भी सुख नहीं मिलता है। इसी तरह (संभोगकाले य अतित्तिलाभे कहिं सुहं-संभोगकाले च अतृप्तिलाभे क्व सुखम् ) उपभोग काल में भी इस को तृप्ति नही होती है तो उस अवस्था में भी इसको सुख कहां है। भावार्थ-रूपवाले पदार्थ में जब यह प्राणी उन्मत्त बन जाता है तब सर्व प्रथम वह उस पदार्थ की बलवान् मूछों से मूच्छित हो जाता है। इस दशा में यह उस पदार्थ की प्राप्ति में और प्राप्त होने पर अपने થયા પછી “ આનો વિનાશ ન થઈ જાય એવા ખ્યાલથી એની રક્ષા કરવામાં તત્પર રહ્યા કરે છે. આથી પિતાના પ્રજનમાં તથા બીજાના પ્રજનમાં એને उपयो॥ ४२ छ, ने ये पतु वये विओगे-व्यये वियोगे नष्ट थ/ Mय छ मथ। अनी पासेथी मांयी व्ये छ तो मेवा (स्थतिमा से कहिं सहतस्य क्व सुखम् से ३५विभाहित भतपासा प्राणी भाटे क्षम२ ५५ सुम २तु नथी मा प्रभारी संभोगकाले य अतित्तिलाभे कहिं सुह-संभोगकाले च अतृप्तिलाभे क्व सुखम् 641 मा ५४ ने तृप्ति थती नथी । અવસ્થા પણ એના માટે સુખ આપનાર બનતી નથી. ભાવાર્થ-રૂપવાળા પદાર્થમાં જ્યારે એ પ્રાણ ઉન્મત્ત બની જાય છે ત્યારે સહુ પહેલાં તે એ પદાર્થની બલવતી મૂચ્છથી મૂચ્છિત થઈ જાય છે. આવી દશામાં એ તે પદાર્થની પ્રાપ્તિમાં તેમજ પ્રાપ્ત થયા પછી પિતાના કર્ત उत्तराध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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