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________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० १२ मार्गगमनयतना मंते = वेश्याके पा.-मोहल्ले-को वज्जए = वर्जे अर्थात् भिक्षाके लिए वहां नहीं जाये । भावार्थ-इस प्रकारके संसर्गसे साधुका मन उद्विग्न हो जानेसे मनमें अनेक कुतर्कणाएं होने लग जाती हैं, तब उसका मन ज्ञान-ध्यान-आदि शुभ कार्यों में नहीं लगकर आर्त-रौद्र-ध्यान करने लगता है। इसलिए साधु ऐसे संसर्गको ही टाले ॥ टीका-तस्माद्धेतोः एतं = पूर्वोक्त दुर्गतिवर्द्धनं = दुर्गतिप्रापकं दोष व्रतविराधनादि लक्षणं विज्ञाय = अवबुध्य एकान्तम् = एकः = अद्वितीयः अन्तो-निश्चयो व्रतरक्षणविषयको मोक्षप्राप्तिविषयको वा एकान्तस्तम् आश्रितः = आस्थितो मुनिः वेशसामन्त = वेश्यापाटकगमनं वर्जयेत् = परित्यजेत् । 'वियाणित्ता' इत्यनेन सम्यगवबोधमन्तरेण दोषपरित्यागो याथातथ्येन न संभवतीति, 'एगंतमस्सिए' इत्यनेन च मुनिना सततं मोक्षकलक्ष्येण भवितव्यमिति सचितम् । मायतनामेव विशिष्याऽऽह-'साणं' इत्यादि। मूलम्-साणं सूइयं गावि दित्तं गोणं हयं गयं । ९ १० ११ १२ संडिब्भं कलहं जुद्धं दूरओ परिवज्जए ॥१२॥ छाया- श्वानं सूतां गां दृप्तं गोणं हयं गजम् । संडिब्भं कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१२॥ साधु जहाँ भिक्षा के लिये न जावे उन स्थानों को विशेष रूपसे कहते हैं सान्वयार्थः-साणं = जहां काटनेवाला कुत्ता ही सूइयं-थोडे कालकी व्याई हुई गावि = गाय हो दित्तं = मदमस्त गोणं = गोधा साण्ड अथवा बैल (और) हयं = घोड़ा उपसंहार करते हैं 'तम्हा एयं' इत्यादि । इसलिए इस-दुर्गतिको बढानेवाले व्रतोंकी विराधनारूप-दोषको जानकर व्रतोंकी रक्षा और मोक्ष की प्राप्ति के निश्चयमें स्थित मुनि वेश्या के पाड़े (चकले) में भिक्षा आदिके लिए न जावे । 'वियाणित्ता' पदसे यह सूचित किया है कि भली भाँति जाने विना दोषका अच्छी तरह परित्याग नहीं हो सकता । 'एगंतमस्सिए' पद से यह प्रगट किया है । कि मुनि को सदा मोक्ष प्राप्तिका लक्ष्य रखना चाहिये ॥ ११ ॥ सहा२ ४२ छ-तम्हा एयं त्याहि. એટલા માટે, એ દુર્ગતિને વધારવાવાળા, વ્રતની વિરાધનારૂપ દેષને જાણીને ત્રતાની રહ્યું અને મોક્ષની પ્રાપ્તિના નિશ્ચયમાં સ્થિત મુનિએ, વેશ્યાના મહેલ્લામાં ભિક્ષા આદિને . वियाणित्ता शपथी सभ सूथित युछे-सारी रात एया विना होषानी सारी पेठे पात्यास शतनथी. पंगतमस्सिए शपथी मेम ५४८ ४यु छ , भुनिये સદા મેક્ષપ્રાપ્તિનું લક્ષ્ય રાખવું જોઈએ. (૧૧) - માટે જવું નહિ, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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