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________________ ७४८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तेषु उक्त रत्नविशेषु प्रतिबिम्बितानि अनेकमुखमण्डलानि तैः रचितं सुशोभितम् पुनः कीदृशमश्वरत्नम् 'आविद्धमाणिक्कसुत्तगविभूसिय' आविद्धमाणिक्य सूत्रकविभूषितम् तत्र आविद्धमाणिक्यं सूत्रकम् अश्वमुखभूषणविशेषस्तेन विभूषितं शोभितम् 'कणगमयपउमसुकयतिलकं' कनकमयपद्मसुकृततिलकम् तत्र कनकमयपझेन सुष्टुकृतं तिलकं यस्य तत्तथा 'देवमइविकप्पि' देवमतिविकल्पितम् तत्र देवमत्या देवचातुर्येण विविधप्रकारेण कल्पितं सृष्टम् 'सुरवरिंदवाहणजोग्गावयं' सुरवरेन्द्रवाहनयोग्यवज्रम्, तत्र सुरवरेन्द्रवाहनम् उच्चैः श्रवा इन्द्रस्य अश्वः तस्य योग्यः मण्डलीकरणाभ्यासः गोलाकारभ्रमणरूपगमन तस्येतिभावः तस्याः व्रजम् प्रापकम् व्रजगतावित्यस्माद च प्रत्ययः तथाः 'सुरुवं' सुरूपम्-सुन्दरम् पुनः कीदृशम् 'दूइज्जमाणपंचचारुचामरामेलग धरेंत' द्रवत् पञ्चचारुचामरमेलकं धरत् तत्र द्रवन्ति इतस्ततो दोलायमानानि सहज चञ्चलाङ्गत्वाद् गलभालमौलिकर्णद्वयमूलनिवेशितत्वेन पञ्चसमयकानि यानि चारुणि चामराणि तेषां मेलकः एकस्मिन् मूर्द्धनिसङ्गमस्तं धरद् वहत्, मूले चामरा इत्यत्र स्त्रीनिर्देशः समयसिद्ध एव अथवा-इन पूर्वोक्त स्थापित कर्केतनादि रत्नों में जिसके अनेक मुखमंडल प्रतिविम्बित हो रहे हैं, इससे जो वड़ा सुहावना लग रहा हैं । ( आविद्ध माणिक्कसुत्तगविभूसियं ) जिसमें माणिक्य लगे हुए है ऐसे सूत्रक अश्वमुख भूषणविशेष से जो विभूषित है (कणगामय पउमसुकयतिलकं) कनकमयपन से जिसके मुख ऊपर अच्छी तरह से तिलक किया गया हैं ( देवमइविकप्पियं) देवोंने अपनी बुद्धि की चतुराई से जिसकी रचना को है ( सुरवरिंदवाहणजोग्गावयं सुरूवं दुइज्जमाण पंचचारुचामरामेलगं धरेतं ) सुरेन्द्र इन्द्र का जो वाहनभूत अश्व है जिसका कि नाम उच्चैश्रवा है । उसको जो योग्या -मण्डलाकाररूप भ्रमण-गोलाकारभ्रमणरूप गमन-उस गमन को यह प्राप्त करनेवाला है । अर्थात् इसको चाल इन्द्र के घोड़ा जैसी है । यह वड़ा सुन्दर है-अच्छे रूप वाला है । पांच स्थानों में गले में भाल में, मौलि में, और दोनों कानों में निषेशित हलते हुए पांच सुन्दर चामरों के मिलाप को जो मस्तक पर धारण करता है। यहां मूल में चामर शब्द को जो स्त्रीलिङ्ग रूप से कहा गया है वह स्व समय में इसकी ऐसी અનેક સુખમંડલ પ્રતિબિંબિત થઈ રહ્યા છે, એથી તે અતીવ રોહામણો લાગી રહ્યો છે. (आविद्धमाणिक्कसुत्तगविभूसियं) रेभा भासियति छ, सेवा सूत्र अश्वभुम भूषण विशेष- थारे विभूषित छ. ( कणगामय पउमसुकयतिलकं) नभय पया ना भुम 6५२ सारी रात ति: ४२वामां आवे छे. (देवमविकप्पियं ) वो पातानी मुद्धिना असताथीनी स्यना ४री छे. (सुरवरिंदवाहणजोग्गा वयं सुरुवं दूइज्जमाण पंच चारु चामरामेलगं धरत) सुरेन्द्र -छन्द्रन पाइनभूत म छ, रेनु नाम न्यैः अव छતેની જે યોયા- મડળાકાર રૂ૫ ભ્રમણ- ગોળાકાર બમણું રૂપ ગમન- તે ગમનને એ પ્રાપ્ત કરનાર છે. એટલે કે એ અશ્વની ચાલ ઇના અશ્વ જેવી છે. એ અશ્વ અતીવ છે. સદર ૩૫વાળે છે. પાંય સથાનમાં-ગળામાં, ભાલમાં,મૌલિમાં અને બન્ને કાનમાં નિવે શિત હાલતા પાંચ સુંદર ચામરના મિલાપને જે મસ્તક ઉપર ધારણ કરે છે. અહીં મૂળમાં જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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