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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आभरणाणि रयणाणिय पुणरवि त सिंधुनामधेज उत्तिण्णे अणहसासणबले तहेव भरहस्स रणो णिवेएइ' तस्मिन् काले सेनापतिः-सेनानीः सुषेणः सविनयः अन्तधृतस्वामिभक्तिकः सन् 'धेतण' गृहीत्वा प्राभृतानि आभरणाणि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि भूयोऽपि तां सिन्धुनामधेयाम् महानदीमुत्तीर्णः 'अणहसासणबले' अक्षतशासनबलः, तत्र अणह शब्दोऽक्षतपर्यायो देशीशब्दस्तेन अणहम् अक्षतं कचिदपि अखण्डितं-शासनम् आज्ञा बलं च यस्य स तथा तहेव' भरहस्स रन्नो' तथैव यथार स्वयं स्वाधीनं कृतवान् तथा २ भरतस्य राज्ञः-भरताय राज्ञे निवेदयति-कथयति णिवेइत्ता य' निवेद्य च निवे दनं कृत्वा 'अप्पिणित्ता य पाहुडाई प्राभृतानि अर्पयित्वा च प्रस्थितः ततो भरतो यत्कृतवान् तदाह- 'सक्कारिय सम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए' ततः घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूमणाणिय पुणरवि तं सिंधुणामधे उत्तिण्णो) विनय पूर्वक जिसने अपने हृदय मै स्वामी भक्ति धारण की थी ऐसे सुषेण सेनापति ने भेट में प्राप्त हुए सभी प्राभृतांको अर्थात् आभूषणादि को एवं रत्नों को लेकर सिंधुनदी को पार की. (अणयसा. सणबले) वह सुषेण सेनापति अक्षत शासन एवं अक्षतबल वाला था यहां 'अणह' यह शब्द देशी है एवं अक्षत का वाचक हैं शासन शब्द का अर्थ आज्ञा एवं बलका अर्थ सैन्य है इस प्रकार अक्षत शासन एवं बल युक्त सुषेण सेनापति ने (भरहस्स रण्णो णिवेदेइ) जिस क्रम से विजय प्राप्त किया उसे यथाक्रम सभी वृत्तांत आ करके भरत राजा से कहे-(णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिअ सम्माणिए सहरिसं विसज्जिए) सब समाचार कह कर और भेटमें प्राप्त सब वस्तुओं को भरत के लिये देकर के उनके द्वारा प्रचुर द्रव्यादिसे सल्कारित हुआ और बहुमान सूचक शब्दों से और वस्त्रा दिकोसे सम्मानित हुआ वह सुषेण सेनापति हर्षसहित विसर्जित होकर-(सगंपडमंडवमइगए) अपने पटमंडपमें-दिव्य पटकृतमंडप में अथवा सभा सूत्रा२४ -(ताहे सेणावइसविणओ घेतूण पाहुडाइं आभरणाणि भूसणाणिय पनवि तं सिंधुणामधेज उत्तिण्णो) विनय सहित पातामायनी मह२ स्वामिनी ભકિત ધારણ કરી રાખી છે. એવા તે સુષેણ સેનાપતિએ ભેંટમાં પ્રાપ્ત કરેલા સર્વ પ્રભુ ताने मालवान सूषणाने तमा २त्नान न सिंधू नहीन पार 3री. (अणयसासण बले) मे सुपए सेनापति क्षत शासन मा अक्षत म सम्पन्न हता. मी "अणह" આ શબ્દ દેશી શબ્દ છે. અને અક્ષતને પર્યાયવાચી છે શાસન શબ્દનો અર્થ આજ્ઞા અને બળને અર્થ સૈન્ય છે. આ પ્રમાણે અક્ષત શાસન અને બળ સમ્પન્ન થયેલા તે સુણ सेनापतिथ्ये (भरहस्स रण्णो णिवेएइ) २ भी पिय प्राप्त या हतो. ते मथी मया सभाया। विगतवार शनने ह्या.(णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिए असम्माणिए सहरिसं विसज्जिए) स सभाया। डीर मन लेटमा प्राप्त स पस्तुये। डीन भने ભરત રાજાને આપી ને તથા તેમના વડે પ્રચુર દ્રવ્યાદિથી સસ્કૃત થઈને બહુમાન સૂચક શબ્દથી અને વસ્ત્રાદિકેથી સન્માનિત થઈને તે સુષેણ સેનાપતિ હર્ષ સહિત રાજા પાસેથી विसनित धन (सगं पडमंडबमइगए) पोताना भ७५मा हिय ५८त म३५i अथवा જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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