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________________ ५९२ ___जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे खलु निश्चयेन नमोऽस्तु विभक्ति परिणामात् तान् प्रणिपतामि-नमस्करोमि । यद्यपि नम इति पदेनैव नमस्कारस्य गतार्थता स्यात्तथापि 'प्रणिपतामि' इति पुनरुक्तिभरतचकिणो भक्त्यतिशयख्यापनाय अनेन शरप्रयोगाय साहाय्यकारकाणां बहिर्भागवासिनां देवानां सम्बोधनमुक्त्वा अथाभ्यंतरभागवत्ति देवान् सम्बोधयितुमाह-'हंदि सणंतु भवंतो अभितरो सरस्स जे देव।। णागा सुरा सुवण्णा सव्वे मे ते विसयवासी ॥२॥ 'हंदि' इति सम्बोधने हे देवाः ! शृण्वन्तु भवन्तोऽभ्यन्तरतः आभ्यन्तराः शरस्य ये देवा नागा असुराः सुपर्णाः सर्वे ते मे-मम विषयवासिनः- मम देशवासिनः तान् प्रणिपतामीति सम्बन्धः । तथा च सर्वे एते देवा मदाज्ञा वशंवदत्वेन मत्प्रयुक्तस्य शरप्रयोगस्य सर्वथा सहायकत्वेन स्थास्यन्तीति बुद्धया नमस्करणम् । यद्यपि एते देवा राज्ञ कुमार इन सबके लिये नमस्कार करता हूँ यद्यपि यहां पर प्रयुक्त नमः शब्द से ही नमस्कार करने की बात आ जाती है, परन्तु फिर भी जो "पणिवयामि" शब्द का प्रयोग किया है । वह भरत चक्री की भक्ति की अतिशयता ख्यापन करने के लिये किया गया है । इस तरह सर प्रयोग के लिये साहाय्य करने वाले बहिर्भाग वासी देवों को संबोधित करके अब वह आभ्यन्तर वर्ती देवों का संबोधन करता है- (हंदि सुगंतु भवंतो अभितरओ सरस्स जे देवा-णागासरा सुवण्णा सव्वे मेते विसयवा सो ॥२॥ -यहां "हंदि" पद सम्बोधन में प्रयुक्त हुआ है। मेरे में रहनेवाले जो नागकुमार, असुरकुमार, सुवर्णकुमार नाम के देव हैं-वे सब सुनें-मैं उन्हे नमस्कार करता हूँ। यहां जो चक्रवर्ती ने ऐमा कहा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि ये सब देव मेरी आज्ञा के वशवर्ती होने के कारण मेरे द्वारा छोड़े गये बाण के सब प्रकार से सहायक होंगे ही इस कारण मैं उन्हे नमस्कार करता हूँ । यद्यपि कोई ऐसी आशंका यहां करे कि जब ये देव राजा के आधिन होने रूप से निर्धारित हैं तो फिर उन्हे नमस्कार करना उसका अनुचित है। હું નાગકુમાર, અસુર કુમાર, સુવર્ણ કુમાર એ સર્વ માટે નમસ્કાર કરુ છું જે કે અહી प्रयात 'नमः' २०४था १ नम२४॥२ ४२वानी पात मावी जय छ या छताये २ "पणिवयामि" शहने। प्रयोग ४२वामां मावेल छे. ते मरत यही मस्तिनी अतिशयता च्या. પન કરવા માટે કહેવામાં આવેલ છેઆ પ્રમાણે બાણ પ્રયોગમાં સહાયભૂત થનારા બરિ. ભગવાસી દેવાને સંબોધિત કરીને હવે તે અત્યંતરવતી દેવને સંબોધન કરે છે. (हंदि सुणतु भवतो अभितरओ सरस्स जे देवा-णागासुरा सुवण्णा सवे भंते विसयवासी ॥२॥ मही "हंदि" ५६ समाधन भाट प्रयुत थयेस छे. भारा देशमा २3ना। २ नाममा२, मसु२शुभा२, सुपण भा२ नाम हे। छ, त। स सानाમને સર્વને નમસ્કાર કરું છું અહી જે ચક્રવતી એ આ પ્રમાણે કહ્યું છે. તેનો અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે એ સર્વે દેવે મારી આજ્ઞા મુજબ ચાલનારા છે. તેથી મારા વડે છે તેવામાં આવેલ બાણને સર્વ રીતે સહાયભૂત થશે જ. એથી હું તેમને નમસ્કાર કરું છે. જો કે અહીં કોઈ એવી આશંકા કરી શકે તેમ છે કે જયારે એ દેવે રાજાને આધીન જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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