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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नरपतिः स्वामित्वात् (गरिंदे) नरेन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् (गरवसहे] नरवृषभः स्वीकृत कृत्य संपादकत्वात् (मरुयरायवसभकप्पे) मरुद्राजवृषभकल्पः तत्र मरुतो देवाः व्यन्तरादयस्तेषां राजानः इन्द्रास्तेषां मध्ये वृषभाः मुख्याः सौधर्मेन्द्रादयस्तत्कल्पः तत्सदृश इत्यर्थः (अब्भहियरायतेअलच्छीए दिप्पमाणे) अभ्यधिक राजतेजो लक्ष्म्या दीप्यमानः (पसस्थ मंगलसएहिं संथुव्यमाणे) प्रशस्तमङ्गलशतैः संस्तूयमानो बन्दिभिरिति (जय सदं कयालोए) जय शब्दकृतालोकः जयशब्दः कृतः आलोके दर्शने सत्येव यस्य स तथा (हत्थिखंधवरगए) हस्तिस्कन्धवरगतः प्राप्तः (जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छइ) यत्रैव मागधतीथै तत्रैवोपागच्छति केन सह तत्राह-'सकोरंट मल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं' सकोरण्टमाल्यदाना छत्रण ध्रियमाणेन सह 'सेयवरहे णरवइ णरिंदे णरवसहे मरुअरायवसभकप्पे अभहिअरायतेअलच्छीए दिप्पमाणे) इसके बाद वे भरताधिप नरेन्द्र कि जिनका वक्षःस्थल हार से व्याप्त हो रहा है, इसी कारण जो बडा ही सुहावना लग रहा है और देखनेवाले मनुष्यों के लिए आनन्दप्रद हो रहा है, मुखमण्डल जिनका दोनों कर्ण के कुण्डलों से उद्योतित हो रहा है मुकुट से जिनका मस्तक चमक रहा है सूखीर होने के कारण जो मनुष्यो में सिंह के जैसे प्रतीत हो रहे हैं, स्वामी होने से जो नर समान के प्रतिपालक-बने हुए है, परम ऐश्वर्य के योग से जो मनुष्य में इन्द्र के तुल्य गिने जा रहे है, स्वकृत कृत्य के संपादक होने के कारण जो नर वृषभ माने जा रहे हैं व्यन्तरादिक देवों के इन्द्रो के बीच में जो मुख्य-जैसे बने हुए है-बहुत अधिक राजतेज की लक्ष्मी से जो चमक रहे हैं (पसत्थमंगलसएहिं संथुव्वमाणे) बन्दिजनो द्वारा उच्चरित सकड़ो मंगलवाचक शब्दो से जो संस्तुत हो रहे है तथा (जयसहकयालोए) आपकी जय हो, जय हो, इस प्रकार से जो दिखते ही लोगों द्वारा कृत शब्दों से पुरस्कृत किये जारहे हैं (हस्थिखधवरगए) अपने पट्ट हाथी पर बैठे हुए (जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छइ) जहाँ पर वई गरिंदे णरवसहे मरुअरायवसमकप्पे अब्भहिअरायतेअलच्छीए दिप्पमाणे) त्यार पार તે ભારતાધિપતિ નરેન્દ્ર કે જેમનું વક્ષસ્થળ હારથી વ્યાપ્ત થઈ રહ્યું છે, એથી જે બહ જ સોહામણું લાગી રહ્યું છે, અને જેનારા મનુષ્ય માટે જે આનંદ પ્રદ થઈ રહ્યું છે, મુખ -મંડળ જેમના બન્ને કર્ણન કુંડળેથી ઉદ્યોતિત થઈ રહ્યું છે, મુકુટથી જેમનું મસ્તક ચમકી રહ્યું છે, શરવીર હોવાથી જે મનુષ્યમાં સિંહવતુ પ્રતીત થઈ રહ્યા છે, સ્વામી હોવાથી જે નર સમાજ માટે પ્રતિ-પાલક રૂપ છે, પરમ એશ્વર્યના યોગથી જે મનુષ્યોમાં ઈન્દ્ર તુલ્ય ગણાય છે, વકૃત કૃત્યના સમ્પાદક હોવાથી જે નર-વૃષભ તરીકે પ્રખ્યાત છે, વ્યતરાદિક દેવના ઈન્દ્રોની વચ્ચે જે મુખ્ય જેવા છે. અત્યધિક રાજ તેજની લકમીથી જે १२वी 25 २ छ (पसत्थमंगलसहि संथुव्वमाणे) महिने। यास्ति सहसाधि मण वाय शहाथी संस्तुत / २ छ, तमका (जय सद्दकयालोए) તમારી જય થાઓ, જય થાઓ આ પ્રમાણે જેમના દર્શન થતાં જ જે લોકો વડે भगा शहाथी पुरस्कृत थ६ २द्या छ (हत्थिखधवर्गए) पोताना पट्ट हाथी ५२. मटा (जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छह) या त भारतीय संतुत्या भाव्या જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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