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________________ ४२० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ग्धानि न तु रुक्षाणि, 'गोसीसवरचंदणकट्ठाई' गोशीर्षवरचन्दनकाष्ठानि-गोशीर्ष गोशीर्ष नाम्ना प्रसिद्धं यद्वरं श्रेष्ठं चन्दनं तस्य काष्ठानि 'साहरह' समाहरत-समानयत 'साहरित्ता' समाहृत्य 'तओ चिइगाओ' तिस्रः चितिका: चितात्रयं 'रएह' रचयत, तत्र 'एगं' एकां चितिकां भगवओ तित्थयरस्स' भगवतस्तीर्थकरस्य कृते रचयत, ‘एगं' एकां चितिकां 'गणहरस्स' गणधराणां कृते, 'एगं' एकां च चितिकाम् 'अवसेसाणं' अवशेषाणां तीर्थकरगणधरभिन्नानाम् 'अणगाराणं' अनगाराणां-साधूनां कृते रचयत । 'तए णं ते भवणवइ जाव वेमाणिया' ततः खलु ते भवनपति यावद् वैमानिकाः भवनपतिव्यन्तर ज्यौतिष वैमानिका 'देवा णंदणवणाओ सरसाइं-गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरंति' देवा नन्दनवनात् सरसानि गौशीर्षवरचन्दनकाष्ठानि समाहरन्ति, 'साहरित्ता' समाहृत्य 'तओ चिइगाओ रएंति' तिखः चितिकाः रचयन्ति । 'एगं भगवओ तित्थयरस्स' तत्रैकां चितिकां भगवतस्तीर्थकरस्य ऋषभदेव स्वामिनः कृते,, 'एगं गणहराणं' एकां चितिकां गणधराणां कृते, 'एगं अवसेसाणं-अणगाराणं' एकां च चितिकाम् अवशेषाणाम् अनगाराणां कृते रचयन्ति । 'तएणं से सक्के देविदे देवराया आभियोगे' ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराज अभियोग्यान्-किङ्करभूतान् 'देवे' देवान् ‘सद्दावेइ' शब्दयति, सद्दावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणपकारेण 'वयासी' अवादीत्-उक्तवान् 'खिप्पामेव' वनसे सरस गोशीर्षचन्दन की लकडियों को लाओ और "साहरित्ता" लाकरके "तओ चिङगाओ रएई" तीन चिताओं की रचना करो; इनमें "एगं भगवओ तित्थयरस्स" एक प्रभु तीर्थंकर की, "एगं गणहरस्स" एक गणधर की और "एगं अवसेसाणं अणगाराणं" एक अवशेष अनगारों की' तब उन भवनपति से लेकर समस्त वैमानिक देवों ने नन्दन वन में जाकरके वहां से सरस गोशीर्षचन्दन की लकड़ियों को लेकर पूर्वोक्त तीन चिताओं की रचना की, एक भगवान् तीर्थ कर के लिये, दूसरी गणधरों के लिये और तीसरी इन दोनों से भिन्न शेष अनगारों के लिये "तएणं से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ" इसके बाद देवेन्द्र देवराजशक ने आभियोग्य जाति के देवों को बुलाया-“सद्दावित्ता एवं वयासी-" बुलाकर उसने ऐसा कहा નુપ્રિયા, તમે સર્વ મળીને શીધ્ર નન્દન વનમાંથી સરસ ગોશીષચન્દનના લાકડાઓ લાવે અને 'साहरिता' साबीन 'तओ चिइगाओ' अथित्ता। तैयार ४२। 'एग भगवओ तित्थयरस्स' से प्रभुतीय ४२ मारे "एगं गणहरस्स' से घ२ माटे भने 'एग अवसेसाण अण गाराण' 23 सपशेष मनगारे। भाटे. त्यार माह सपनपतिम्याथी भांडार स वैमानि४ દેએ નન્દન વનમાં જઈને ત્યાંથી સરસ શીર્ષ ચન્દનના લાકડાઓ લાવીને પૂર્વોકત ત્રણ ચિતાઓની રચના કરી એક ભગવાન તીર્થંકર માંટે, એક ગણધરે માટે અને એક मासन्नी लिन शेष भनाभाटे. 'तरण से सक्के देविदे देवराया आभिओगे देवे सहावेई' त्यार माह पेन्द्र देव२४ मालियोग्य जतिनावाने मसाथ्या 'सहावित्ता एवं वयासी' जी ने तेमने या प्रमाणे धु-खिप्पामेव भो देवाणुप्यिया खिरोदगसमु જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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