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________________ ३८४ ___ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्स उववज्जति णो अणागारोवउ तस्स' छाया-सर्या लब्धयः साकारोपयुक्तस्य उपपचन्ते नो अनाकारोपयुक्तस्य-इत्यागमप्रमाणात् उत्पत्तिक्रमेण सर्वदा जिनानां प्रथमे समये ज्ञानं द्वितीये समये दर्शनं भवतीति सूचयितुं 'सव्वन्नू सव्यदरिसो' अयमेव क्रमः सर्वत्र स्वीक्रियते । इति छद्मस्थानां तु प्रथमे समये दर्शनं द्वितीये समये ज्ञानमुत्पद्यते इत्यपि प्रसङ्गतो विज्ञेयम् । 'परमसुहसमाणणो' इत्यस्य 'परमसुखसमापनश्छाया समापेः समाणः इति प्राकृतसूत्रेण समापेः समाणादेशाद् बोध्येति ॥सू० ४२॥ मूलम्-तएणं से भगवं समणाणं निग्गंथाणय निग्गंथीणय महव्ययाई सभावणगाइं छच्च जीवणिकाए धम्मं देसेमाणे विहरइ, तं जहा पुढविकाइए भावणामेगं पंच महब्बयाई सभावणगाइं भाणियव्वाइं ति उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासी गणा गणहरा होत्था । उसमस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खाओ चुलसीइं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । उसमस्स णं अरहओ कोसलियस्स बंभीसुंदरीपामोक्खाओ तिण्णि अज्जिया सयसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया संपया होत्था । उसभस्सणं अरहओ कोसलियस्स कि "सव्वाओ लद्वीओ सागारोव उत्तस्स उववज्जति" जितनी भो लब्धियां होती हैं वे साकारोपयोग में उपयुक्त जीव के होती है, "णो अणागारोव उत्तस्स" अनाकार उपयोग वाले के नहीं होती हैं, ऐसा आगम का प्रमाण है । उत्पतिक्रम की अपेक्षा सर्वदा जिन प्रभु को प्रथम समय में ज्ञान उत्पन्न होता है और द्वितीय समय में दर्शन होता है, इस बात को सूचित करने के लिए "सव्यन्नू सव्वदरिसी" ऐसा हो सूत्रपाठ रखा गया हैं यही क्रम सर्वत्र है। हां, जो जीव छद्मस्थ है उनके तो प्रथम समय में दर्शन और द्वितीय समय में ज्ञान होता है ऐसां जानना चाहिए "परम सुह समाणणो" में समापि के स्थान में प्राकृत सूत्र से समाणादेश ही जाता है तब "समाणण" ऐसा बन जाता है ॥४२।। प्रभारी छ, "सव्याओ लद्धीओ सागारोवउत्तस्स उववज्जति” २८सी समयमा थायछते सा५येगम 6युत सपने थाय छ, “णो अणागारोवउतस्स" अनार ઉપગવાળાને હોતી નથી. એવું આગમનું પ્રમાણ છે. ઉત્પત્તિ ક્રમની અપેક્ષા સર્વદા જિન પ્રભુના પ્રથમ સમયમાં જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે અને દ્વિતીય સમયમાં દર્શન હોય છે. એ पातन सथित ४२वा माटे "सधन्नू सव्वदरिससी" च्या सूत्रा: २५वाभांमा છે. એ જ ક્રમ સર્વત્ર છે. પણ તે જ છદ્મસ્થ છે, તેમને તે પ્રથમ સમયમાં દર્શન અને द्वितीय समयमा ज्ञान हाय छे मामले में परंतु न्यारे “परमसुह समाणणो" भा समापिना स्थानमा प्राकृत सूत्रथा समाहेश य य छे. त्यारे “समाणण" मेनु રૂપ થઈ જાય છે ૪રા જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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