SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ३३ तेषां मनुजानां भवस्थित्यादि निरूपणम् २९५ उचितोपचारादिना पालयन्ति, 'संगोवेंति' संगोपयन्ति=अनाभोगेन हस्तस्खलनादिभ्यः सम्यक् रक्षन्ति, इत्यं 'सारक्खित्ता संगोवेत्ता' संरक्ष्य संगोप्य च अन्तसमये 'कासित्ता' कासित्वा-कासं कृत्वा, 'छीइत्ता' क्षुत्वा-छिकां कृत्वा, 'जंभाइत्ता' जृम्भित्वा-जम्भां कृत्वा 'अक्किट्ठा' अक्लिष्टाः शारीरिकक्लेशवर्जिताः, 'अव्वहिया' अव्यथिता 'अपरियाविया' अपरितापिता स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमनःपरितापाः सन्तः 'कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु' कालमासे कालं कृत्वा देवलोकेषु भवनपतिमारभ्य ईशान पर्यन्त देवलोकेषु 'उववति ' उत्पद्यन्ते, 'देवलोयपरिग्गहाणं ते मणुया' यतस्ते खलु मनुजाः देवलोकपरिग्रहाः भवनपत्यादोशानान्तो देवलोकः, तथाविधकालस्वभावात् तधोग्यायुर्ब न्धेन परिग्रहः अङ्गीकारो येषां ते तथाभूता:-देवलोकगामिन इत्यर्थः. 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः -कथिताः। युगलिनो हि आयुषः षट्सु मासेसु अवशिष्टेषु परभवायुर्बध्नन्ति, अत एतेषामायुस्त्रिभागादौ परभवायुबन्धाभाव उक्त इति । ते मनुजाः स्वसमायुष्केषु स्वहीराइंदियाई सारक्खंति, संगोवेति" ४९ रातदिन तक उचित उपचार आदि से पालना करते हैं, देखभाल करते हैं इस प्रकार पालना और संरक्षण करके फिर ये 'कासित्ता छाइत्ता जंभाइत्ता अक्किट्ठा अव्वहिया अपरियाविया कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जति " खांसी लेकर, छीक लेकर और जंभाई लेकर विना किसी कष्ट के और विना किसी परिताप के कालमास में मरकर देवलोक में भवनपति से लेकर ईशानपर्यन्त देवलोक में उत्पन्न होते हैं. क्योंकि "देवलोयपरिग्गहिया णं ते मणुया पण्णत्ता" इनका जन्म देवलोक में ही होता है. अन्य लोक में मनुष्य नारक और तियेचलोक में नहीं होता है ऐसा आगम का आदेश है । युगलिक जन भुज्यमान आयु जब छ मास की वाकी रहती है तब परभव की आयु का बन्ध कहते हैं इसलिये इनके परभव की आयु का बन्ध त्रिभाग में- अपनी आयु के त्रिभाग में नहीं होता है, ये स्वसमान आयुवाले देवलोकों में उत्पन्न होते हैं इसीलिये इनका उत्पाद भवनपति से लेकर ईशानपर्यन्त के देवलोकों में ही कहा गया है । इन युगलिक जीवों का अकाल में मरण नहीं होता है ये अपने खति संगोवैति ४६ रात हिस सुधीयत ५यार गरेको सासन पालन छ । રેખ તેમજ સંભાલ રાખે છે. આ પ્રમાણે લાલન પાલન તેમજ સંરક્ષણ કરીને પછી એઓ 'कासित्ता छोइत्ता भाइत्ताअक्किट्ठा अवहिया अपरिअविया कालमासे कालं किच्चादेवलो. म उववज्जति' उस पाईने, छी४ माईन भने पापा ने १२ तना કટે વગર કોઈ પણ જાતના પરિતાપે કાલ માસમાં મરણ પામીને દેવલોકમાં ભવનપતિથી. मina शान पय त वरमा -थाय छ म 'देवलोय परिग्गहिया ण ते मण જ એમનો જન્મ દેવલોકમાં જ હોય છે. અન્ય મનુષ્ય, નારક અને તિર્યશ્લોકમાં એમને જન્મ થતો નથી. એવા આગમને આદેશ છે. ભુજમાન આયુ ૬ માસ જેટલું બાકી રહે છે ત્યારે યમલિયાજને પરભવના અાયુને બમ્પ કુરે છે. એથી એમના પરભવના આયનો ધ વિભાગમાં–પિતાના આયુના ત્રિભાગમાં–થતું નથી. એઓ સમાન આચવાળા જૈવ લોકમાં કે પિતાના આયુ કરતાં હીન આયુવાળા દેવલીકામાં જન્મગ્રહણ કરે છે. એવી કોના ઉત્પાદ ભવનપતિથી માંડીને ઈશાન પયતના દેવલોકમાં કહેવામાં આવેલ છે. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy