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________________ सूर्यमिप्रकाशिका टीका सू० ८७ षोडश प्राभृतम् ७२७ स्वरूपं प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना इत्यनेनापि पदेन वाच्यार्थी - भवति, तथैव यदेव च ज्योइत्यनेन पदेन वाच्यार्थी भवति तदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेनापि पदेन वाच्यार्थी भवतीति भावः ॥ अथ सूर्यविषयकः प्रश्नः - 'ता सूरलेस्सादीय आयवेह य, आयवेइ य सूरलेस्सादीय के अट्ठे किं लक्खणे ।' तावत् सूर्यलेश्या इति च आतप इति च, आतप इति च सूर्यलेश्या इति च किं अस्ति किं लक्षणं ? तावदिति प्राग्वत् सूर्यलेश्या इति, आतप इत्यनयोः पदयोस्तथा आतप इति सूर्यलेश्या इत्यनयोः पदयोर्वा आनुपूर्व्या, अनानुपूर्व्या वा व्यवस्थितयोः एक एव - अभिन्न एवार्थी भवति ? भिन्नार्थी वा भवतीति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता एगडे एग लक्खणे' तावत् एकस्थं एकलक्षणं तावदिति पूर्ववत् सूर्यलेश्या आतप इत्यनयोः पदयो, आतप-सूर्यलेश्या इत्यनयोः पदयोर्वा -क्रमन्यस्त योर्युत्क्रमन्यस्तयोर्वा एक एव वाच्यार्थी अति, अर्थात् सूर्यलेश्या इति पदस्य यो हि वाच्यार्थः रूप लक्षण जिनका हो वह एक लक्षण वाला कहा जाता है । अर्थात् जिस प्रकार चंद्र लेश्या इस पद से वाच्य का असाधारण स्वरूप प्रतीत होता है । वही ज्योत्स्ना इस पद से वाच्यार्थ होता है, उसी प्रकार जो ज्योत्स्ना इस पद से वाच्यार्थ होता है वही चंद्र लेश्या इस पद से भी वाच्यार्थ होता है इस प्रकार का आशय स्पष्ट होता है । " अब श्री गौतमस्वामी सूर्य के विषय में प्रश्न करते हैं - (ता सूरलेस्सादीय आवेइय, आवेई सरलेस्सादीय के अड्डे किं लक्खणे) सूर्य लेश्या यह तथा आतप ये दो पद तथा आतप एवं सूर्य लेश्या ये दो पद का आनुपूर्वी से अथवा अनानुपूर्वी से व्यवस्थित होने पर क्या अभिन्न ही अर्थ होता है ? अथवा भिन्न अर्थ होता है ? इस प्रकार श्रीगौतमस्वामी के पूछने से उत्तर में श्रीभगवान् कहते हैं - (ता एगट्ठे एग लक्खणे) सूर्य लेश्या एवं आतप ये दो पदों का तथा आतप एवं सूर्य लेश्या ये दो शब्द क्रमन्यस्त हो या व्युत्क्रमन्यस्त हो जिस किसी प्रकार हो परंतु एक समान ही दोनों का अर्थ होता है । લક્ષણવાળા કહેવાય છે. એટલેકે જે પ્રમાણે ચદ્રલેશ્યા આ પદથી વાચ્યનું અસાધારણુ સ્વરૂપ જણાય છે. એજ યેાના આ પદથી વાચ્ચા થાય છે એજ ચંદ્રલેશ્યા આ પત્તથી પણ વાચ્યા થાય છે. આ પ્રમાણેના આશય સ્પષ્ટ થાય છે. હવે શ્રીગૌતમસ્વામી सूर्यना संबंधमां प्रश्न पूछे छे.- ( वा सूरलेस्सादी आयवेइय, सूरलेस्सादीय के अ किं लक्खणे ) सूर्यसेश्या माय भने मातय-तडओ मा मे यह तथा तयाने सूर्य લેશ્યા આ બે પદ્યને! આનુપૂર્વીથી અથવા અનાનુપૂર્વી થી વ્યવસ્થિત હેાય ત્યારે શું અભિ ન્જ અથાય છે? અથવા ભિન્ન અથ થાય છે ? આ પ્રમાણે શ્રીગૌતમસ્વામીના प्रश्नने सांभणीने उत्तरमा श्रीभगवान् उडे छे. - ( ता एगट्ठे एगलक्खणे) सूर्य लेश्या अने આતપ આ બે પદોના તથા આતપ અને સૂયૅલેશ્યા આ બે શબ્દ ક્રમથી રાખેલ હાય શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૨
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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