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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २१ सू० ५ वैक्रियशरीरसंस्थाननिरूपणम् ६९३ प्रज्ञप्तम्, तत्र खलु यददः उत्तरवैक्रियं तदपि हुण्डसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम्, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपश्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं खलु भदन्त ! कि संस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! रत्नप्रभापृथियीनैरयिकाणां द्विविधं शरीरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-भवधारणीयं च, उत्तरवै क्रयश्च, तत्र खलु यददो भवधारणीयं तत् खलु हुण्डसंस्थानसंस्थितम्, यदद उत्तरवैक्रियं तदपि हुण्डम्, एवं यावत्-अधः सप्तमपृथिवीनरयिकवैक्रियशरीरम्, तिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीर खलु भदन्त ! (तत्थ णं जेसे भवधारणिज्जे से णं हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते) उनमें जो भवधार. णीयशरीर है वह हुडक संस्थान याला कहा गया है (तत्थ णं जे से उत्तरवेरग्विए से वि हुंडसंठाणसंठिए) उनमें जो उत्तर वैक्रिय है वह भी हुंड संस्थानचाला है (रयणप्पभापुढविनेरइय पंचिंदियवेउव्वियसरीरेणं भंते ! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते) हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक पंचेन्द्रियों का धैक्रियशरीर किस आकार का कहा है ? (गोयमा! रयणप्पभापुढविनेरइयाणं दुबिहे सरीरे पण्णत्ते) हे गौतम ! प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों का शरीर दो प्रकार का कहा है (तं जहा) यह इस प्रकार (भवधारणिज्जे य उत्तरवेउन्धिए य) भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय (तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे) उनमें जो भवधारणीय है (सेणं हुंडसंठागसंठिए) बह हुंडसंस्थान वाला होता है। (जे से उत्तरवेउविए से विडंडे) जो उत्तरवैक्रिय हैं वह भी हुंडक संस्थान बाला होता है (एवं जाव अहे सत्तमा पुढथि नेरइयवेउव्वियसरीरे) इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नारकों का वैक्रिय शरीर भी होता है। (तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्वियसरीरेणं भंते! किं संठाणसंठिए पण्णत्त ?) हे भगवन् ! तिर्यंच पंचेन्द्रियों का बैक्रियशरीर किस आकार का कहा है ? संठिए पण्णत्ते) तमा सधायायशरीर छ, ते ४ थान पाणाडेसा छे (तत्थणं जे से उत्तरवेउव्विर से वि हुंडसंठाणसंठिए) तेभारे उत्तरवैठियशश२ छ ते ५५] हु स स्थानमा छ. (रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरेणं भंते ! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते) है ભગવદ્ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીને નારક પંચેન્દ્રિયના વક્રિપશરીર કેવા આકારના કહાં છે ? (गोयमा ! रयणप्पभा पुढविनेरइयाणं दुविहे सरीरे पण्ण ते) गौतम ! २नमा पृथ्वीना नारीना AN२ मे २न। Bai छ (तं जहा)-ते 20 घारे छ (भवधारणिज्जे य उत्तरवेउव्यिए य) लधारणीय भने उत्तरवैठिय (तत्थणं जे से भवधारणिज्जे) तेसोमा सारणीय छ (से गं हुड संठाणसंठिए) ते सत्थानवा डाय छ (जे से उत्तरवेउव्विए से वि हुडे) २ उत्तरवैश्य छ ते ५९५ ४४ सस्थानकाय हाय छे (एवं जाव अहेसत्तमा पुढविनेरइय बेउव्वियसरीरे) मे०४ ५४१२ या५त् ५५: सातमी पृथ्वीना नाना यशरी२ ५यत सभा'. (तिरिक्खजोणियपंचिदियवे उव्वियसरीरेणं भंते ! कि संठाणसंठिए पण्णत्ते?) ३ लान् ! तिय ययान्द्रयोन। यशरीर ३२१ मारना i छ ? (गोयमा ! णाणा संठाणसंठिए श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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