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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ स० १४ भाषाद्वारनिरूपणम् जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कृष्टेन वनस्पतिकाल:-अनन्तकालं यावद् इत्यर्थः, वनस्पतिकालस्तावत्-'अणंताओ उस्सप्पिणी भो सप्पिणीयो कालो, खेत्तओ अणंतालोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, तेणं पोगगलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइ भागो' इत्येवरूपः प्रतिपादितः, तथा च सादि सपर्यवसितोऽभापकः अभ षकत्वपर्यायविशिष्टः सन् जघन्येन अन्तर्मुहूर्तमवतिष्ठने भाषित्वाकिश्चित्कालमवस्थाय पुनरभाषकत्वोपरब्धः, अथवा द्वीन्द्रियादिभाषक एकेन्द्रियादिषु अभाषकेषूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त जीवित्वा भूयोऽपि यदा यदा द्वीन्द्रियादिरेवोत्पद्यते कभी भाषक पर्याय प्राप्त नहीं किया हो और जो भविष्य में भी कभी भाषकपना प्राप्त नहीं कर सकेगा वह अनादि अपर्यवसित अभाषक कहलाता है जिसने अतीत कालमें भाषकपर्याय प्राप्त नहीं की किन्तु भविष्यमें प्राप्त करेगा वह अनादि सपर्यवसित अभाषक कहलाता है। जो भाषक होकर फिर अभाषक हो गया है वह सादि सपर्यवसित अभाषक कहलाता है। इन तीन प्रकार के अभाषकों में से जो सादि सान्त अभाषक है, वह जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पति काल तक अभाषक रहता है। वनस्पतिकाल काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कहा गया है और क्षेत्र से अनन्त लोक अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरावर्तन परिमाण कहा है। वे पुद्गलपरावर्तन भी आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस प्रकार सादि सपर्यवसित अभाषक निरन्तर अभाषक पर्याय से युक्त जघन्य अन्तमुहर्त तक रहता है, फिर भाषक बन जाता है और फिर अभाषक हो जाता है । अथवा द्वीन्द्रिय आदि भाषक जीव एकेन्द्रिय अभा. षकों में उत्पन्न होकर और यहां अन्तर्मुहर्त तक जीवित रहकर फिर द्वीन्द्रियादि भाषक रूप में उत्पन्न होता है, उस समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाવસિત, અનાદિ સપર્યાવસિત, સાદિ સપર્યાવસિત ભૂતકાળમાં કયારેય ભાષક પર્યાય પ્રાપ્ત કરેલ હોય અને ભવિષ્યમાં પણ કરી શકે નહીં તે અનાદિ અપર્યાવસિત આભાષક કહેવાય છે. તથા જેણે ભૂતકાળમાં ભાષક પર્યાય પ્રાપ્ત કરેલ ન હોય પણ ભવિષ્યમાં પ્રાપ્ત કરી શકે તે અનાદિ સપર્યવસિત અભાષક કહેવાય છે. જે ભાષક થઈને પછી અભાષક થઇ ગયેલ છે, તે સાદિ સપર્યવસિત અભાષક કહેવાય છે. આ ત્રણ પ્રકારના અભાષકમાંથી જે સાદિસાન્ત અભાષક છે. જઘન્ય અન્તર્મુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ વનસ્પતિકાળ સુધી અભાવક રહે છે. વનસ્પતિકાળ કાળની અપેક્ષાએ અનન્ય ઉત્સર્પિણી તેમજ અવસર્પિણી કહેલ છે અને ક્ષેવથી અનન્તલોક અર્થાત્ અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરાવર્તન પરિમાણ કહેલ છે, તે પુદ્ગલ પરાવર્તન પણ આવલિકાના અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ છે. એ પ્રકારે સાદિ સપર્યપસિત અભાષક નિરન્તર અભાષક પર્યાયથી યુક્ત श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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