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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ सू० १ जीवादिकायस्थितिनिरूपणम् ३३१ जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि, तिर्यग्योनिकः खलु भदन्त ! तिर्यग्योनिक इति कालतः कियचिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम, उत्कृष्टेन अनन्तं कालम्, अनन्ता उत्सपिण्ययसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतः, अनन्ता लोकाः असंख्येय पुद्गलपरिवर्ताः, ते खलु पुद्गलपरिवर्ताः आवलिकाया असंख्येयभागः, तिर्यग्योनिकी खलु भदन्त ! तिर्यग्योनिकीति कालतः कियश्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृ. प्टेन त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटि पृथक्त्वाभ्यधिकानि, एवं मनुष्योऽपि मनुष्यपि एवञ्चव, देवः खलु भदन्त ! देव इति कालतः किञ्चिरं भवति ? गौतम ! यथैव नैरयिकः, देवी खलु हे भगवन् ! तिर्यग्योनिक कितने काल तक तिर्यग्योनिकपने में रहता है ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं अणंतं कालं) हे गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उत्कृष्ट अनन्त काल तक (अणंताओ उस्सप्पिणीओ सप्पिणीओ कालओ) काल से अनन्त उत्सर्पिणियां, अवसर्पिणियां (खेत्तओ अणंता लोगा) क्षेत्र से अनन्त लोक (असंखेन्ज पोग्गलपरियहा) असंख्यात पुद्गलपरावर्तन (ते णं पुग्गलपरियहा) ये पुद्गलपरावर्तन (आवलि पाए असंखेजइभागे) आवलिका के असंख्यात में भाग (तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणि त्ति कालओ के वच्चिर होइ ?) हे भगवन् ! तिथचनी कितने काल तक तिर्यचनी रहती है ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई) हे गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से तीन पल्योपम तक (पुव्यकोडिपुहुत्तमम्भहियाई) पूर्वकोटि पृथक्त्व करोड पूर्व अधिक (एवं मणुस्से वि) इसी प्रकार मनुष्य भी (मणुस्सी वि एवं चेव) मनुष्यनी भी इसी प्रकार (देवे णं भंते ! देवत्ति कालओ केवचिरं होइ १) हे भगवन् ! देव कितने काल तक देव रहता है ? (गोयमा ! जहेव नेरइए) हे गौतम ! जैसे नारक (देवी णं तिय योनि eat in सुधी तिययोनि रहे छ ? (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं अणत कालं) है गौतम ! १३५ मन्तभुत सुधी, उत्कृष्ट अनन्त सुधी (अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ) mथा मनन्त उत्सपियो असलियो (खेत्तओ अणता लोगा) क्षेत्रथा मनन्तas (अस खेज्ज पोग्गलपरियट्टा) असभ्यात Ye परावर्तन (तेणं पुग्गलपरियट्टा) ते हात पराक्तन (भावलियाए अस खेज्जइ भागे) मासिवनी मध्यातमा माग (तिरिक्खजोणिणीणं भंते ! तिरिक्खजोणिणित्ति कालओ केवच्चिर होइ) हे भगवन् ! तिय यनी हेट। सुधा तिय यनी रहे छ ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई) हे गौतम ! धन्य अन्तडित Gre a ५८यो ५म सुधा (पुत्रकोडि पुहुत्तमब्भहियाई) पूटि ५५३१ । पूर्व अधिः (एवं मणुस्से वि) से प्रारं मनुष्य ५५ (मणुस्सी वि एवं चेव) मनुष्यनी ५६ मे रे. (देवेणं भंते ! देवत्ति कालओ केवच्चिर होइ? हे लगवन् ! हे टसा ॥ सुधीपमा रहेछ ? (गोयमा ! जहेव नेरइए) गोतम! 40 ना२४ (देवीणं भंते ! देवित्ति कालओ श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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