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________________ प्रबोधिनी टीका पद १७ स० १६ लेश्यापरिणमन निरूपणम् २०७ छाया -कति खलु भदन्त ! लेश्याः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! षड्लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्याः, तत् नूनं भदन्त ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य तद्रूपतया तद्वर्णतया तद्गन्धतया तद्सतया तत्स्पर्शतया भूयो भूय परिणमति ? हन्त, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य तद्रूपतया यावत् भूयो भूयः परिणमति, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य तद्रूपतया यात्र भूयो भूयः परिणमति ? गौतम ! तद्यथा नाम क्षीरं दुष्यं प्राप्य शुद्धं दा वस्त्रं रागं प्राप्य तद्रूपतया यावत् तत्स्पर्शतया भूयो लेश्यावक्तव्यता शब्दार्थ - (कइ णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ?) हे भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही हैं ? (गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ) हे गौतम ! छह लेश्याएं कही है (तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा) कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या (से नूगं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प) हे भगवन् ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त करके (ता वत्ताए) उसी रूप में (ता वण्णत्ताए) उसी वर्ण में (ता गंधत्ताए ) उसी गंधपने में (ता रसताए) उसी रस में (ता फासताए) उसी स्पर्श के रूप में (भुज्जो भुज्जो परिणम ) पुनः पुनः परिणत होती है ? (हंता गोयमा !) हां गौतम ! (कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प) कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर (ता रूवताए जाय भुज्जो भुज्जो परिणमइ) तद्रूपता से यावत् पुनः पुनः परिणत होती है (सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ) हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ( कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प) कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर (ता रूबताए जाव भुज्जो २ परिणमइ) तद्रूपता से यावत् पुनः पुनः परिणत होती है (गोयमा ! से जहा नामए खीरे दूसिं पप्प) जैसे कोई दूध दूष्प अर्थात् खटाई લૈશ્યા વક્તવ્યતા (कणं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ १) हे भगवन् ! सेश्याओ। उसी ही छे ? (गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ) हे गौतम ? छश्याओ ही छे (तं जहा कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा) તે આ પ્રકારે છે—કૃષ્ણુવેશ્યા યાવત્ શુકલલેશ્યા. ( से नूणं भंते ! कण्हलेस्सं पप्प) हे भगवन् ! धृष्णुले त्यावाणा नीससेश्याने प्राप्त उरीने ( a) D zuhi (ar gooarg) Av qqʻui (ar sivarg) Ay n'uui (at zame) तेरसभां (ता फासत्ताएं) मे स्पर्शना ३५भा (भुज्जो भुज्जो परिणमइ) पुनः पुनः परित थाय छे (हंता गोयमा !) हा गौतम ! ( कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प) कृष्णुलेश्या नीसवेश्याने आप्त थने (ता रूत्ताए जाव-भुज्जो भुज्जो परिणमइ) ६३पताथी यावत् पुनः पुनः परिणत थाय छे. (सेकेण भंते! एवं च्चइ) से लगवन् ! शा हेतुश्री मेवु हवाय छे ( कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प) सॄष्णुसेश्या नीससेश्याने प्राप्त थर्धने (ता रूत्रत्ताए जाव भुज्जो - भुज्जो परिणम इ) श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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