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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू०९ भाषाद्रव्यग्रहणनिरूपणम् ३७३ स्पृशति, यानि अभिन्नानि निसृजति तानि असंख्येया अवगाहनवर्गणा: गत्वा भेदमापद्यन्ते, संख्येयानि योजनानि गत्वा विध्वंसमागच्छन्ति ॥ सू० ९|| टीका - अथ भाषा द्रव्याणां सान्तर निरन्तरादि रूपेण ग्रहणाग्रहणवक्तव्यतां प्ररूपयितु माह - 'जीवे णं भंते ! जाईं दव्वाई भासताए गेव्हइ ताई किं संतरं गेव्हइ निरंतरं गेव्हइ ?" हे भदन्त ! जीवः खलु यानि भाषाद्रव्याणि भाषातया - भाषत्वेन गृह्णाति तानि किं सान्तरंसव्यवधानं व्यवधानपूर्वकमित्यर्थः गृह्णाति ? किं वा निरन्तरम् - निर्व्यवधानं व्यवधानरहितमित्यर्थः, गृह्णाति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'संतर 'पि गेहड़, निरंतरंपि गेव्ह ' है ( अनंतगुणपरडीए णं परिवुडूमाणाई लोयंत फुसंति) वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं (जाइ अभिourt निसरइ ताई असंखेजाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता) जिन अभिन्न द्रव्यों को त्यागता है, वे असंख्यात अवगाहन वर्गणाओं तक जाकर (भेदमावज्जति) भेद को प्राप्त हो जाते हैं (सखेज्जाई जोअणाई गता ) संख्यात योजनों तक जाकर (विद्वंसमागच्छति ) विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं । टीकार्थ-जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है, यह कहा जा चुका है, परन्तु क्या उन्हें बीच-बीच में कुछ समय छोड़कर ग्रहण करता है, अथवा निरन्तर ग्रहण करता ही रहता है ? इत्यादि प्रश्नों पर यहां प्रकाश डाला जाता है गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं- हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण कहता है, क्या उन्हें सान्तर अर्थात् बीच में कुछ समय का व्यवधान डालकर या वीच-बीच में रुककर ग्रहण करता है, अथवा निरन्तर अर्थात् बीच में व्यवधान डाले बिना - लगातार ग्रहण करता है ? अठे छे (जाइ भिण्णाइ णिसरइ) ने लिन्न द्रव्योने अढे छे (ताई अनंतगुणपरिवुड्ढीएणं परिवुड्ढमाणाइ लोयंतं फुसंति) ते द्रव्यो अनंत गुणु वृद्धिथी वृद्धिने आस थता सोअन्तने स्पर्श पुरे छे (जाई अभिण्णाई' निसरइ ताई असंखेज्ज ओगाहणवगाणाओ गंता) ने अभिन्न द्रव्याने त्यागे छे तेथे असण्यात, अवगाहना वर्गशओ सुधी धने (भेद मावज्जति) लेहने आप्त यह लय छे (संखेज्जाई जोअणाई गंता) संध्यात यो सुधी ने (विद्वंसमागच्छंति) विश्व सने आप्त थाय छे ટીકા-જીવ ભાષા દ્રવ્યાને ગ્રહણ કરે છે, એ કહેવાઈ ગયું છે, પરન્તુ શું તેમને વચમા–વચમા થોડો સમય ત્યાગીને ગ્રહણ કરે છે, અથવા નિરન્તર ગ્રહણ કરતાજ રહે છે ? વિગેરે પ્રશ્નો પર અહીં પ્રકાશ પડાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે હે ભગવન્! જીવ જે દ્રવ્યેાને ભાષા રૂપમાં ગ્રહણ કરે છે, શુ તેઓને સાન્તર અર્થાત્ વચમાં થે।ડા સમયનું વ્યવધાન રાખીને અગર વચમાં વચમાં રોકાઈને ગ્રહણ કરે છે, અથવા નિરન્તર અર્થાત્ વચમાં કોઇ વ્યવધાન રાખ્યા સિવાય નિરન્તર (સતત) ગ્રહણ કરે છે? श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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